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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
बढ़ाया है । परस्परके मन्तव्योंका जोर शोरके साथ खंडन मंडन किया है। इनमें सर्व प्रथम तार्किक जैन विद्वान स्वामी समन्तभद्र थे और उनकी प्रसिद्ध 'आप्तमीमांसा' पर अबतक की ज्ञात एवं उपलब्ध सर्व प्रथम व्याख्या अकलंकदेवकी 'अष्टशती' है। उससे पूर्व कोई अन्य टीका या व्याख्या समन्तभद्र के ग्रन्थों पर रची गयी या नहीं यह नहीं कहा जा सकता । अकलंकदेवका समय इसाकी ७ वी ८वीं शती माना जाता है। ईस्वी सन्के प्रारंभसे अकलंकके समय तक वैदिक बौद्धादि अजैन नैयायिकोंमें सर्व प्रसिद्ध विद्वान, क्रमानुसार नागार्जुन, दिङनाग, भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति हैं। आचार्य समन्तभद्रके ग्रन्थोंका इन विद्वानोंकी कृतियोंके साथ तुलनात्मक अन्तःपरीक्षण करने पर यह सुस्पष्ट हो जाता है कि किसका किसपर कितना प्रभाव पड़ा । न्यायकुमुदचन्द्र. भाग १ को प्रस्तावना, 'समन्तभद्र और दिङनागमें पूर्ववर्ती कौन' ? तथा 'नागार्जुन और समन्तभद्र' आदिसे यह निर्विवाद फलित हो जाता है कि प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल और बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति (६३५-६५० ई०) अकलंकके ज्येष्ठ समकालीन थे । अकलंकका समय ६२०-६८० ई० निर्णित होता है । डा० ए० एन० उपाध्ये भी प्रायः उसीका समर्थन करते हैं । कुमारिलने अपने ग्रन्थोंमें समन्तभद्रके अनेक मन्तव्योंका खंडन किया है। धर्मकीर्तिने भी समन्तभद्र के कितने ही मन्तव्योंको खंडन किया जिनका सबल प्रत्युत्तर अकलंकने अपने 'न्यायविनिश्चय' में दिया । 'शब्दाद्वैत' के प्रतिष्ठाता और 'स्कोटवाद' के पुरस्कर्ता भर्तृहरि ई० की छठी शतीके विद्वान हैं । धर्मकीर्ति, अकलंक और कुमारिल आदिने उनका जोरोंके साथ खंडन किया है । यदि समन्तभद्र भर्तृहरिके उत्तरवर्ती होते तो उनके इन क्रान्तिकारी वादोंका खंडन किये विना न रहते, किन्तु उनकी कृतियोंमें इनकी कुछ भी चर्चा नहीं मिलती। प्रसिद्ध बौद्धदर्शन शास्त्री दिङनागका समय ३४५-४२५ ई० माना जाता है । ये पूज्यपाद ( लगभग ४५०-५२५ ई० ) के भी पूर्ववर्ती थे, पूज्यपादने दिङ्नागके कतिपय पद्योंका निर्देश भी किया है। दिङ्नागकी रचनाओंपर समन्तभद्रका गम्भीर एवं स्पष्ट प्रभाव है अतः वे दिग्नागके पूर्ववर्ती अर्थात् सन् ३४५ ई० से पूर्व के विद्वान ही ठहरते हैं । 'शून्यवाद'के पुरस्कर्ता बौद्ध विद्वान नागार्जुन (सन् १८१ ई० ) दूसरी शती के विद्वान है। इनके 'माध्यमिका' 'विग्रहव्यावर्तनी' 'युक्तिषष्ठिका' आदि ग्रन्थोंकी समन्तभद्रकी तार्किक रचनाओंके साथ तुलना करनेसे यह स्पष्ट हो
१ अनेकान्त, व. ५, वि. १२, पृ०३८३. माणिकचन्द्र दि, जैन ग्रंथमाला बबई द्वारा प्रकाशित । अनेकान्त व. ७,
किं० १-२. पृ० १०. २ न्याय. कुन्चं.-भा. २, प्रस्तावना पृ० २०५ । ३ 'अनन्त वीर्य के समय पर डा० पाठक मत' (ए. भ. ओ, रि. इ. पूना) ४ तत्त्व संग्रहको भूमिका पृ. ७३ ।। ५ तवसंग्रह भूमिका पृ० ६८ ।
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