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स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास
जाता है कि ये दोनों विद्वान् अवश्य ही समकालीन रहे, समन्तभद्रकी कृतियोंमें उनका साक्षात् प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
___२. श्वेताम्बराचार्य मलयगिरिने स्वामी समन्तभद्रका 'आद्य स्तुतिकार' नामसे, हेमचंद्राचार्यने 'महान् स्तुतिकार' के रूपमें और हरिभद्रसूरि ( ७००-७७० ई०) ने 'वादिमुख्य' के नामसे ससम्मान उल्लेख किया है । श्वेताम्बर परम्परामें सर्वमान्य आद्य एवं महान् स्तुतिकार और वादिमुख्य सिद्धसेनदिवाकर हैं । उपर्युक्त सभी विद्वान दिवाकर जीकी प्रतिभा और कार्य-कलापोंसे सुपरिचित थे, फिर भी उन्होंने एक दिगम्बराचार्यके लिए जो ये विशिष्ट विशेषण प्रयुक्त किये हैं इनसे ध्वनित होता है कि वे अखंड जैन परम्पराकी दृष्टिसे समन्तभद्रको ही 'आद्यस्तुतिकार' आदि के रूप में मानते और जानते थे । हां, केवल श्वेताम्बर परम्परामें वह स्थान दिवाकरजी को ही प्राप्त था । इससे प्रतीत होता है कि सिद्धिसेन दिवाकर संबंधी दन्तकथाओं के प्रचलित और १३ वी १४ वीं शती ई० में लिपि वद्ध होनेके पूर्व' प्राचीन श्वेताम्बर विद्वान् समन्तभद्रको सिद्धसेन दिवाकरका पूर्ववर्ती ही मानते थे । 'सन्मतितर्क' की विस्तृत भूमिकामें दोनों तार्किक स्तुतिकारोंकी कृतियों की तुलना की गयी है । उससे ज्ञात होता है कि भाषा, भाव
और शैलीकी दृष्टिसे सिद्धसेन दिवाकरपर समन्तभद्राचार्यका भारी प्रभाव पड़ा है, दिवाकर जी की कृतियोंमें समन्तभद्र का यह त्रिविध अनुकरण अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है । इतना ही नहीं समन्तभद्र के उत्तरवर्ती दिङनागका भी सिद्धसेनपर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा जिसका समाधान संभव है उन दोनों पर किसी तीसरे ही एक पूर्वाचार्य का प्रभाव पड़ा हो' कहकर किया गया है । डा० जैकोबी और श्री पी० एल० वैद्यकी तो यह दृढ़ धारणा है कि सिद्धसेनपर धर्मकीर्तिका भी स्पष्ट प्रभाव पड़ा है अतः वह उनके सर्व प्रथम उल्लेख कर्ता जिनदासगणि महत्तर (६७६ ई० ) और धर्मकीर्ति (६३५-६५० ई.) के बीच किसी समय हुए हैं। सन्मतितर्ककी उपर्युक्त भूमिकामें उनका निश्चित समय; विक्रमकी ५ वीं शतीका आधार; लगभग एक हजार वर्ष पीछे प्रचलित आख्यायिकाओंकी साक्षी द्वारा सूचित उज्जैनीके विक्रमादित्यसे सम्बन्ध रहा है । यतः ये विक्रमादित्य विक्रम संवत्के प्रवर्तक आदि-विक्रम ( सन् ५७ ई० पूर्व ) तो हो ही नहीं सकते, गुप्तवंशी विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वि० (३७६-४१४ ई०) या उनके पौत्र स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ( ४५५-४६७ ई०), और संभवतया स्कंदगुप्त ही हो सकते हैं । डा० सतीशचन्द्र वि० भू० ने इसी आधार पर उन्हें मालवेके हूणारि विक्रमादित्य यशोधर्मदेव (५३० ई०) का समकालीन माना है २ । बादमें इस मतका परिवर्तन कर दिया है और अब “सिद्धसेन ईसाकी छठी या सातवीं
१. प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश, आदि । वास्तव में सिद्धसेनदिवाकरके नामसे प्रचलित 'द्वात्रि शंकाओं 'सन्मतितर्क' और 'न्यायावतारके तुलनात्मक अन्तःपरीक्षणसे यह सुस्पष्ट हो जाता कि वे सभी कृतियां किसी एक व्यक्ति और काल की नहीं हो सकतीं। कमसे कम विभिन्न कालीन तीन व्यक्तियों की रचनाएं होनी चाहिये। २. न्यायावतार भूमिका पृ०३।
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