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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
उपसंहार
इस तरह नूतन धारके पांचों प्रमाणों में से कोई भी प्रमाण यह सिद्ध करनेके लिए समर्थ नहीं है। कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती श्राचार्य वीरसेनके बादकी बनी हुई है अथवा उस तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न है जिसका वीरसेन अपनी धवला टीका में उल्लेख कर रहे हैं । तब यह कल्पना करना तो अतिसाहस है कि वीरसेनके शिष्य जिनसेन इसके रचयिता हैं, जिनकी स्वतंत्र ग्रन्थ रचना-पद्धतिके साथ इसका कोई मेल नहीं खाता । ऊपरके सम्पूर्ण विवेचन एवं ऊहापोहसे स्पष्ट है कि यह तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्य की कृति है, धवलासे कई शती पूर्वकी रचना है - और वही चीज है जिसका वीरसेन अपनी धवलामें उद्धरण, अनुवाद तथा श्राशय ग्रहणादिके रूपमें स्वतंत्रता पूर्वक उपयोग करते रहे हैं । ग्रन्थकी अन्तिम मंगल गाथा में 'द' पदको ठीक मानकर उसके श्रागे जो 'अरिस वसहं' पाठकी कल्पनाकी गयी है और उसके द्वारा यह सुभाने का यत्न किया है कि 'इस तिलोयपण्णत्तीसे पहले यतिवृषभका तिलोयपण्णत्ति नामका कोई आर्ष ग्रन्थ था जिसे देखकर यह तिलोयपण्णत्ती रची गयी है । फलतः उसीकी सूचना इस गाथामें 'दठण अरिसवसहं' वाक्यके द्वारा की गयी है' वह भी युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि इस पाठ और उसके प्रकृत अर्थी संगति गाथा के साथ नहीं बैठती, जिसका स्पष्टीकरण प्रारम्भ में किया जा चुका 1 इसलिए यह लिखना कि " इस तिलोयपण्णत्तिका संकलन शक संवत् ७३८ ( वि० सं० ८७३ ) से पहले का किसी भी हालत में नहीं है" तथा "इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालत में नहीं हो सकते" अति
साहसका द्योतक है । क्योंकि किसी तरह भी इसे युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता ।
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