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व अभिनन्दन ग्रन्थ
उत्पन्न व्याधि दुःख देती है और वन में उगी औषधि सुख पहुंचाती है। पुरुषोंके गुण ही कार्यकारी हैं; निज और पर की चर्चा भोजन में ही शोभा देती है।' राजाओंको पहिले तो मन्त्र द्वारा ही सफलता प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये 'जो मन्त्रवुद्ध से ही विजय प्राप्त कर सकते हैं उन्हें शस्त्रबुदसे क्या प्रयोजन ? जिसे मन्दार वृक्ष पर ही मधु प्राप्त हो सकता है वह उत्तुङ्ग शैलपर क्यों चढ़ेगा ?' विजिगीषाकी भावना से जो राजा स्वदेशरक्षाकी चिन्ता छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं उन्हें किस सुन्दरतासे सावधान किया है 'जो राजा निजदेशकी रक्षा न कर परदेशको जीतनेकी इच्छा करता है वह उस पुरुषकी तरह उपहासका पात्र होता है जो घोती खोलकर मस्तकपर साफा बांधता है ।' साम आदि के असफल रहनेपर अन्त में अगत्या दण्डका प्रयोग करना चाहिये । किन्तु दण्डका प्रयोग प्रत्येक समय सफल नहीं होता। उसका कब और किस प्रकार प्रयोग करना चाहिये श्राचार्य कहते हैं कि 'उदय, समता और हानि यह राजाओंके तीन काल हैं । इनमें से उदय काल में ही युद्ध करना चाहिये, अन्य दो कालोंमें शान्त रहना चाहिये । यतः एकका अनेकोंके साथ युद्ध करना पैदल सैनिकका हाथी के साथ युद्ध करनेकी तरह व्यर्थ होता है इसलिए बनके हाथी की तरह भेद उपायके द्वारा शत्रुको दलसे तोड़कर वशमें करना चाहिये। जिसप्रकार कच्ची मिट्टी के दो वर्तन परस्पर टकराने से दोनों ही फूट जाते हैं उसी प्रकार समान शक्तिके धारक राजाके साथ स्वयं युद्ध न करके उसे हाथीकी तरह किसी अन्य राजाके साथ भिड़ा देना चाहिये ।' इसी प्रकार हीन शक्तिके धारक राजा के साथ भी स्वयं नहीं लड़ना चाहिये बल्कि उसे अन्य बलवानोंके साथ लड़ाकर क्षीणकर देना चाहिये अथवा किसी नीति द्वारा उसे अपना दास बना लेना चाहिये २ । कितने ही राजा विना विचारे भरती करके अपनी सैनिक संख्या बढ़ा लेते हैं । परन्तु अवसर पर उनकी वह सेना काम नहीं आती इस लिए आचार्य कहते है कि 'पुष्ट, शूरवीर, अस्त्रकलाके जानकार और स्वामि-भक्त श्रेष्ठ क्षत्रियोंकी थोड़ीसी सेना भी कल्याण कारिणी होती है। व्यर्थ ही मुण्ड मण्डली एकत्रित करनेसे क्या लाभ है ? इस प्रकार युद्धकी व्यवस्था करके भी ग्रन्थकारका हृदय युद्धनीतिको पसंद नहीं करता । तथा वे कह ही उठते हैं'एक शरीर है और हाथ दो ही हैं; शत्रु पद पदपर भरे पड़े हैं । कांटे जैसा क्षुद्र शत्रु भी दुख: पहुंचाता है ! फिर तलवार द्वारा कितने शत्रु जीते जा सकते हैं ?' जो कार्यं साम, दान और भेदके द्वारा सिद्ध न
योग्य कार्य में शस्त्रका
हो सके उसीके लिए दण्डका प्रयोग करना चाहिए ।' 'सामके द्वारा सिद्ध होने कौन प्रयोग करेगा? जर्दा गुड खिलानेसे मृत्यु हो सकती है वहां विष कौन देगा नय रूपी जाल डालकर शत्रु रूपी मत्स्योंको फंसाना चाहिये जो भुजाओं द्वारा युद्ध रूपी क्षुभित समुद्रको तरना चाहेगा उसके घर कुशलता कैसे हो सकती है? फूलोंके द्वारा भी युद्ध नहीं करना चाहिये फिर तीक्ष्ण वाणों द्वारा युध करनेकी तो बात ही क्या है ? हम नहीं जानते युद्ध दशा को प्राप्त हुए पुरुषों की क्या दशां होगी ?
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१. नीतिवा० युद्ध स ० ६९ ।
२. यश चम्पू आ. ३ इलो० ६८-८३ तथा नीतिवाक्यामृत, युद्ध समुदेश. सूत्र. ६८ ।
३. यश० न० आ० ३, श्लो० ८४ ९२ ।
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