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सागारधर्मामृत और योगशास्त्र श्री पं० हीरालाल शास्त्री, न्यायतीर्थ ।
बारहवीं तेरहवीं शतीमें रचे गये जैन वाङ्मयकी और विद्वानोंका सबसे अधिक ध्यान जिन आचार्योंने खींचा है, उनमें से श्वेताम्बर परम्परामें आचार्य हेमचन्द्र और दिगम्बर परम्परामें पंडितप्रवर अाशाधरका नाम चिरस्मरणीय रहे गा । जिस प्रकार कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रने जैन वाङ्मयके प्रायः सभी विषयोंपर अपनी कुशल लेखनी चलायी है, उसी प्रकार प्राचार्यकल्प महापंडित आशाधरने भी धर्म, न्याय, साहित्य, वैद्यक आदि अनेकों विषयोंपर स्वतंत्र रचनाएं की हैं, जो दि० परम्परामें अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। श्राचार्य हेमचन्द्र तथा पं० श्राशाधरने अपने सामने उपस्थित समस्त जैन श्रागमका मंथन कर और उसमें अपनी विशिष्ट प्रतिभारूप मिश्री, तर्कणारूप एला और अनुभवरूप केशरका सम्मिश्रण करके जिज्ञासुत्रों के नेत्र, रसना और हृदयको आल्हादित करने वाला बौद्धिक श्रीखण्ड उपस्थित किया है।
यदि आचार्य हेमचन्द्रने योगशास्त्र ग्रन्थमें ध्यान आदिका वर्णन करते हुए श्रावक और मुनियोंके धर्मोंका भी वर्णन किया है तो पं० आशाधरने भी धर्मामृत नामके ग्रन्थके दो भाग करके पूर्वार्धमें मुनिधर्मका वर्णन किया, जो अाज स्वतंत्र 'अनगारधर्मामृत, नामसे प्रकाशित है। और उसी ग्रन्थके उत्तरार्धमें श्रावक धर्मका वर्णन किया है, जिसका नाम सागारधर्मामृत है।
पं० श्राशाधरजीसे पूर्व दि० श्राचार्योंने जितने भी श्रावक धर्मके वर्णन करनेवाले ग्रन्थ रचे हैं उन सबका दोहन कर एवं अनेकों नवीन विशेषताओंसे अलंकृत तथा स्वोपज्ञ टीकासे परिष्कृत करके पं० श्राशाधरजीने ऐसे अनुपम रूपमें सागरधर्मामृतको दि० सम्प्रदायके धर्मानुरागी श्रावकोंके लिए प्रस्तुत किया है कि वह अाज तक उनका पथ प्रदर्शन करता है। प्रकृत ग्रन्थका परिशीलन करनेसे जहां एक ओर उनकी अगाध विद्वत्ता और अनुभव मूलक लेखनीपर श्रद्धा होती है, वहीं दूसरी ओर उनकी असाम्प्रदायिकता और सद्गुण-ग्राहकता भी कम आश्चर्य जनक नहीं है, प्रत्युत वर्तमानके कलुषित साम्प्रदायिक वातावरणसे परे महान् एवं अनुकरणीय श्रादर्श समाजके सामने उपस्थित करती है। जैसा कि पं० श्राशाधरजीके सागारधर्मामृत तथा प्राचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्र वर्णित श्रावकधर्म प्रकरणमें दृष्टिगोचर यथेष्ट आदान प्रदानसे सिद्ध होता है, यह बात निम्न तुलनात्मक उद्धरणोंसे भली भांति स्पष्ट हो जाती है।
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