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सम्यक्त्वकौमुदीके कर्ता
रूपमें प्रसिद्धि रही । नागदेवके हेम और राम नामके दो पुत्र हुए । ये दोनों भाई भी अच्छे वैद्य थे रामके प्रियङ्कर नामका एक पुत्र हुअा, जो याचकोंके लिए बड़ा ही प्रिय लगता था । प्रियङ्करके भी श्री मल्लुगित् नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रीमल्लुगित् जिनेन्द्र भगवानके चरण कमलोंका उन्मत्त भ्रमरके समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्र-समुद्रमें पारंगत था । श्री मल्लुगित्का पुत्र मैं नागदेव हुआ। मैं ( नागदेव ) अल्पज्ञ हूं तथा छन्द, अलङ्कार, काव्य और व्याकरण शास्त्रमें से मुझे किसी भी विषयका बोध नहीं है। हरिदेवने जिस कथा ( मदन पराजय ) को प्राकृत में लिखा था, भव्य जीवोंके धार्मिक विकासकी दृष्टि से मैं उसे संस्कृत में निबद्ध कर रहा हूं।" लिखकर दिया है । इस प्रस्तावनासे ' स्पष्ट है कि श्रीमल्लुगित्के पुत्र नागदेवने ही मदनपराजयको संस्कृत भाषामें निबद्ध किया है और यह वही कथा है जिसे नागदेवसे पूर्व छठी पीढ़ीके हरिदेवने प्राकृतमें ग्रथित किया था।
नागदेवका समय–मदनपराजयकी प्रशस्तिसे नागदेव और उनकी वंश-परंपराका ही उक्त परिचय मात्र मिलता है । मदनपराजय के कर्ता ने इस धरा-धामको कब अलंकृत किया, इस बातका कोई उल्लेख न तो मदनपराजयकी प्रस्तावना या अन्तिम प्रशस्तिमें स्वयं नागदवने ही दिया और न किसी अन्य ग्रन्थकारने ही इनके नाम, समय, आदिका कोई स्पष्ट सूचन किया है। ऐसी स्थितिमें नागदेवके यथार्थ समयका पता लगाना कठिन है, फिर भी अन्य स्रोतोंसे नागदेवके समय तक पहुंचना शक्य है। वे स्रोत निम्न प्रकार हैं
(१) नागदेवने मदनपराजय और सम्यक्त्वकौमुदी में जिन ग्रन्थकारोंकी रचनाओंका उपयोग किया है, उनमें सर्वाधिक परवर्ती पंडितप्रवर अाशाधर हैं । और पंडित श्राशाधरने अपनी अन्तिम रचना (अनगारधर्मामृत टीका ) वि० सं० १३०० में समाप्त की है। अतः यदि इसी अवधिको उनका अन्तिम काल मान लिया जाय तो नागदेव वि० सं० १३०० के पूर्वके नहीं ठहर सकते ।
(२) श्री ए. बेवरको १४३३ ई० की लिखी हुई सम्यक्त्वकौमुदीकी एक पाण्डुलिपि [हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई थी। यदि इस प्रतिको नागदेवके २७ वें वर्ष में भी लिखित मान लिया जाय तो भी उनका श्राविर्भाव काल विक्रमकी चौदहवीं शतीके पूर्वार्द्धसे आगेका नहीं बैठता । नागदेवके समयका यह एक संकेतमात्र है। पुष्ट निर्णय भविष्यमें संचित सामग्रीके आधार पर हो सकेगा।
१ - 'मदन-पराजय' की प्रस्तावना श्लोक १-५ । २ - 'ए हिस्ट्री आफ इण्डियन कलचर' (द्वितीय भाग), पृ० सं० ५४१की टिप्पणी
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