________________
सागारधर्मामृत और योगशास्त्र पं० आशाधरजीके सागारधर्मामृतकी टीका वि० सं० १२६६ में पूर्ण हुई जब कि श्राचार्य हेमचन्द्र वि० सं० १२२९ में स्वर्गवासी हो चुके थे। इस प्रकार पं० आशाधरजीका श्रा० हेमचन्द्रसे पीछे होना निर्विवाद सिद्ध है । अतः उनपर प्राचार्यका प्रभाव स्पष्ट है जैसा कि प्राचार्य हेमचन्द्रके समान दुरूह मूल ग्रन्थोंके स्पष्टीकरणार्थ पं० श्राशाधरजीके अपने अनगारधर्मातृत और सागारधर्मामृतपर स्वोपज्ञ टीकाएं लिखनेसे सिद्ध है । यहां दोनों ग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययनके अाधारपर सागरधर्मामृतके कुछ ऐसे स्थलोंके उद्गमका स्पष्टीकरण किया जाता है जो मूल जैन परम्परासे मेल नहीं खाते ।
वनमालाका शपथ दिलाना–सागारधर्मामृतके चौथे अध्याय श्लोक २४ में रात्रिभोजनत्याग व्रतकी महत्ता बतलाते हुए लिखा है 'रामचन्द्रको कहीं ठहराकर पुनः यदि तुम्हारे पास न आऊं तो मैं हिंसा श्रादि पापोंका दोषी होऊ' इस प्रकार अन्य शपथोंको करनेपर भी वनमालाने लक्ष्मणसे 'रात्रि भोजनके पापका भागी होऊं' इस एक शपथको ही कराया।' टीकामें लिखा है कि रामायणमें ऐसा सुना जाता है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें रामका चरित वर्णन करने वाले दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं—एक तो रविषेणाचार्य रचित पद्मचरित और दूसरा गुणभद्राचार्य रचित उत्तरपुराण । उत्तरपुराणका कथानक अति संक्षिप्त है और उसमें वनमालाके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा गया है पद्मचरितमें वनमालाका वर्णन है । वनमालाको छोड़कर जब लक्ष्मण रामके साथ जाने लगे, तब वह बहुत विकल हुई, उसके चित्त-समाधानके लिए लक्ष्मणने कुछ शपथ भी किये-मगर वहां रात्रिभोजनके पापसे लिप्त होनेवाले किसी शपथका वर्णन नहीं है जैसा कि पद्मचरितके पर्व २८ में आये ३५-४३ वें श्लोकों से स्पष्ठ है। प्राकृत 'पउमचरिउ' भी रामके चरित्रको वर्णन करता है और ऐतिहासिक विद्वान् इसे रविषेणाचार्यके 'पद्मचरित' से भी पुराना मानते हैं। यद्यपि अभी तक यह निर्णित नहीं है कि यह ग्रंथ दि० परम्पराका है, अथवा श्वे० परम्पराका । तथापि श्वे० संस्थासे मुद्रित एवं प्रकाशित होनेके कारण सर्वसाधारण इसे श्वेताम्बर ग्रन्थसा ही सोचते हैं। प्रकृतमें हमें उसके दि० या० श्वे० होनेसे कोई प्रयोजन नहीं है । इस ग्रंथमें वनमालाकी चर्चा उसी प्रकार विशद रूपसे की गयी है, जिस प्रकार कि संस्कृत पद्मचरितमें । पर यहां पर भी रात्रिभोजनकी शपथका कोई उल्लेख नहीं हैं जैसा कि पर्व ३८ गाथा १६-२० के सिद्ध हैं ।
इसके विपरीत प्राचार्य हेमचन्द्ररचित त्रिषष्ठिशलाका-पुरुष चरितके सातवें पर्वमें वनमालाका वर्णन है और वहां उसके द्वारा लक्ष्मणसे रात्रिभोजनके पापसे लिप्त होनेवाली शपथका भी उल्लेख है। "श्रांखोंमें अांसू भरकर वनमाला बोली-"प्राणेश, उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा किस लिए की थी ? यदि उस समय मैं मर जाती तो मेरी वह सुखमृत्यु होती; क्योंकि मुझे अापके विरहका यह असह्य दुःख न सहना पड़ता ।" लक्ष्मणने उत्तर दिया-'हे वरवर्णिनी, मैं अपने ज्येष्ठ बन्धुको इच्छित स्थान पर पहुंचाकर तत्काल ही तेरे पास अाऊंगा।'
३७१