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जैनसाहित्यमें राजनीति
स्थिर शान्ति रखनेके लिए राजाओंको उदार बनना चाहिये-अपनी संपदाका उचित भाग दूसरों के लिए भी देना चाहिये । जो राजा संचय शीलताके कारण अाश्रितजनोंमें अपनी सम्पदा नहीं बांटते उनका अन्तरंग सेवक वर्ग भी घूसखोर हो जाता है और इस प्रकार प्रजामें धीरे धीरे अनीति पनपने लगती है । अतः जो नरेन्द्र अपनी लक्ष्मीका संविभाग नहीं करता है वह मधुगोलककी तरह सर्वनाशको प्राप्त होता है। यहां दान उपायके समर्थनके आगे, भेदनीतिका भी सुन्दर प्रतिपादन है । 'जो राजा शत्रुत्रोंमें भेद डाले विना ही पराक्रम दिखाता है वह ऊंचे वांसोंके समूहमेंसे किसी एक बांसको खींचने वाले बलीके समान है।
कितने ही नीतिकार 'राजाओंको अपना शारीरिक बल सुदृढ़ रखना चाहिये के समर्थक हैं और दूसरे राजाओंके बौद्धिक बलको प्रधानता देते हैं । परन्तु श्रा० सोमदेव दोनोंका समन्वय करते हुए कहते हैं कि 'शक्तिहीन राजाका बौद्धिक बल किस काम का ? और बौद्धिक बलहीन राजाकी शक्ति किस काम की ? क्योंकि दावानलके ज्ञाता पंगु षुरुषके समान ही सबल अन्धा-पुरुष भी दावानलका ज्ञान न होनेसे अपनी रक्षा नहीं कर सकता । यह आवश्यक नहीं है कि शत्रुओंको अपने वशमें करनेके लिए उनके देशपर अाक्रमण करे । जिस प्रकार कुम्भकार अपने घर दैठकर चक्र चलाता हुअा अनेक प्रकारके बरतनोंको बना लेता है उसी प्रकार राजा भी अपने घर बैठकर चक्र ( नीति एवं सैन्य ) चलाये और उसके द्वारा दिग-दिगन्तके राजारूपी भाजनोंको सिद्ध ( वश में ) करे । जिस प्रकार किसान अपने खेतके बीच मञ्च पर बैठ कर ही खेतकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपने श्रासन पर आरूढ़ होकर समस्त पृथ्वीका पालन करना चाहिये।
'जिस प्रकार माली कटीले वृक्षोंको उद्यानके बाहर वाड़के रूपमें लगता है, एक जगह उत्पन्न हुए पौधोंको जुदो जुदी जगह लगाता है, एक स्थानसे उखाड़ कर अन्यत्र लगाता है, फूले वृक्षोंके फूल चुनता है, छोटे पौधों को बढ़ाता है, ऊंचे जानेवालोंको नीचेकी अोर झुकाता है, अधिक जगह रोकनेवाले पौधोंको छांट कर हलका करता है और ज्यादा ऊंचे वृक्षोंको काटकर गिराता है उसी प्रकार राजाको भी तीक्ष्ण प्रकृति वाले राजाओंको राज्यकी सीमा पर रखना चाहिये, मिले हुए राजाओंके गुटको फोड़कर जुदा जुदा कर देना चाहिये, एक स्थानसे च्युत हुए राजाओंको अन्य स्थानका शासक बनाना चाहिये, सम्पन्न राजाओंसे टैक्स वसूल करना चाहिये, छोटोंको बढ़ाना चाहिये, अभिमानियोंको नम्र करना चाहिये बड़ोंको हलका करना चाहिये--उनकी राज्य सीमा बाट देना चाहिये और उद्दण्डोंका
१ य० च० आ० ३. श्लो० ९३ तथा नी० वा० धर्मसमुद्दे श सूत्र १५। २ यशस्तिलक चम्पू आ०३ श्लो० ९४ ।
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