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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
निर्वाहका भार लेकर भी यदि भोग-विलासको ही अपना लक्ष्य बना लें तो उनसे अधिक अात्मवञ्चक तथा प्रमत्त कौन होगा ? प्राचार्य सोमदेव ने राजा और राज्य की त्याग मयता के कारण ही उसे पूज्य समझकर अपने नीतिवाक्यामृतके प्रारम्भमें राज्यको ही नमस्कार किया है। उनका पहिला सूत्र है-'अथ धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः ।' शुक्राचार्यके नीतिशास्त्र में भी 'सन्धि, विग्रह अादि शाखा, साम, दान, आदि पुष्प तथा धर्म-अर्थ-काम रूप फल युक्त राज्य वृक्षको नमस्कार किया गया है । राजा कौन हो सकता है ? इसके उत्तरमें श्रा० सोमदेव कहते हैं धर्मात्मा कुल अभिजन
और श्राचारसे शुद्ध, प्रतापो, नैतिक, न्यायी, निग्रह-अनुग्रहमें तटस्थ, आत्म सम्मान अात्म-गौरवसे व्याप्त, कोश बल सम्पन्न व्यक्ति राजा होता है ।'
राजनीति
राजाकी नीति राजनीति कहलाती है, यह चार पुरुषार्थों मेंसे अर्थ पुरुषार्थ के अन्तर्गत है। इस नीतिका पूर्ण प्रकाश वही राजा कर पाता है जो कि समस्त राजविद्यानोंमें निष्णात होता है | राज-विद्यायोंकी संख्यामें प्राचीन कालसे विवाद चला आ रहा है जैसा कि “यतः दण्डके भयसे ही सब लोग अपने अपने कार्यों में अवस्थित रहते हैं अतः दण्डनीति ही एक विद्या है' ऐसा शुक्राचार्यके शिष्योंका मत है । 'चंकि वृत्ति वार्ता और विनय ही लोक व्यवहारका कारण हैं, इसलिए वार्ता और दण्डनीति यही दो विद्याएं हैं' ऐसा वृहस्पतिके अनुयायी मानते हैं । 'यतः त्रयी ही वार्ता और दण्डनीतिका उपदेश देती है इस लिए त्रयी, वार्ता और दण्डनीति यही तीन राज-विद्याएं हैं। ऐसा मनुस्मृतिके भक्तोंका अभिप्राय है । 'यतः आन्वीक्षिकीके द्वारा जिसका विवेचन किया गया है ऐसी त्रयी हो वार्ता और दण्डनीतिपर अपना प्रभाव रख सकती है इसलिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति, ये चार ही राज-विद्याएं हैं, ऐसा कौटिल्यका मत है ।" उद्धरणसे स्पष्ट है ।
प्राचार्य सोमदेव ने भी कौटिल्यके समान आन्वीक्षिकी आदिको ही राजविद्या माना है । जिसमें अध्यात्म विषयका निरूपण हो वह आन्वीक्षिकी, जिसमें पठन-पाठन, पूजन विधान, आदि का वर्णन हो वह त्रयी, जिसमें कृषि, पशु पालन, आदि व्यवसाअोंका वर्णन हो वह वार्ता और जिसमें साधु संरक्षण तथा दुष्टोंके निग्रहका वर्णन हो वह दण्डनीति कहलाती है ।
१ नमोऽस्तु राज्यवृक्षाय पाइगुण्याय प्रशाखिने । सामादिचारु पुष्पाय त्रिवर्गफल दायिने ।। (शुक्रनीति) २ 'धार्मिकः कुलाभिजनाचारविशुद्धः प्रतापवान्नयानुगतवृत्तिश्च स्वामी' 'कोपप्रसादयोः खन्न्त्र:. 'आत्मा
तिशयं धनं वा यस्यास्ति स स्वामी ।' स्वामि समुद्दश सूत्र १-३ ।
३ 'आन्वीक्षिकी त्रयो वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो राजविद्याः । ५६॥ 'आन्वीक्षिक्यध्यात्मविषये, त्रयी वेदयज्ञादिषु, वार्वा कृषिकर्मादिका, दण्डनीतिः साधुपालन दुष्टनिग्रहः ।।६।। 'नीतिवाक्यात-विद्यावृद्धसमुद्दश ।
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