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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
उद्देशादि किसी भी रूपमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख हो-लघीयत्रयमें भी 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः, श्लोकके पूर्व में एक ऐसा श्लोक पाया जाता है जिसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख है
और उनके अगमानुसार कथनकी प्रतिज्ञा की गयी है ( 'प्रमाण-नय-निक्षेपाभिधानस्थे यथागम' )- और उसके लिए पहला श्लोक संगत जान पड़ता है। अन्यथा उसके विषयमें यह बतलाना होगा कि वह दूसरे कौनसे ग्रन्थका स्वतन्त्र वाक्य है । दोनों गाथाओं और श्लोकोंकी तुलना करनेसे तो ऐसा मालूम होता है कि दोनों दलोक उक्त गाथाओंसे अनुवादरूपमें निर्मित हुए हैं। दूसरी गाथामें प्रमाण, नय और निक्षेपका उसी क्रमसे लक्षण निर्देश किया गया है जिस क्रमसे उनका उल्लेख प्रथम गाथामें हुश्रा है। परन्तु अनुवादके छन्दमें (श्लोक) शायद वह बात नहीं बन सकी । इसीसे उसमें प्रमाणके बाद निक्षेपका और फिर नयका लक्षण दिया गया है। इससे तिलोयपण्णत्तीकी उक्त गाथाश्रोंकी मौलिकताका पता चलता है और ऐसा जान पड़ता है कि उन्हीं परसे उक्त श्लोक अनुवाद रूपमें निर्मित हुए हैं-भले ही यह अनुवाद स्वयं धवलाकारके द्वारा निर्मित हुश्रा हो या उनसे पहले किसी दूसरेके द्वारा । यदि धवलाकारको प्रथम श्लोक कहींसे स्वतंत्र रूपमें उपलब्ध होता, तो वे प्रश्नके उत्तरमें उसीको उद्धृत कर देना काफी समझते-दूसरे लघीयत्रय जैसे ग्रंथसे दूसरे श्लोकको उद्धृत करके साथमें जोड़नेकी जरूरत नहीं थी; क्योंकि प्रश्नका उत्तर उस एक ही श्लोकसे हो जाता है । दूसरे श्लोकका साथमें होना इस बातको सूचित करता है कि एक साथ पायो जानेवाली दोनों गाथाओंके अनुवादरूपमें ये श्लोक प्रस्तुत किये गये हैं-चाहे वे किसीके भी द्वारा प्रस्तुत किये गये हों।
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि धवलाकारने तिलोयपण्णत्तीकी उक्त दोनों गाथाओंको ही उद्धृत क्यों न कर दिया, उन्हें श्लोकोंमें अनुवादित करके या उनके अनुवादको रखनेकी क्या जरूरत थी ? इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इतना ही कह देना चाहता हूं कि यह सब धवलाकार वीरसेनकी रुचिकी बात है, उन्होंने अनेक प्राकृत वाक्योंको संस्कृतमें और संस्कृत वाक्योंको प्राकृतमें अनुवादित करके उद्धृत किया है। इसी तरह अन्य ग्रन्थोंके गद्यको पद्यमें और पद्यको गद्यमें परिवर्तित करके अपनी टीकाका अंग बनाया है । चुनांचे तिलोयपण्णत्तीकी भी अनेक गाथाओंको उन्होंने संस्कृत गद्यमें अनुवादित करके रक्खा है, जैसे कि मंगलकी निरुक्तिपरक गाथाएं, जिन्हें द्वितीय प्रमाणमें समानताकी तुलना करते हुए, उद्धृत किया गया है । इसलिए यदि ये उनके द्वारा ही अनुवादित होकर रक्खे गये हैं तो इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है । इसे उनकी अपनी शैली और रुचि, श्रादिकी बात समझना चाहिये ।
__ अब देखना यह है कि 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोकको जो अकलंकदेवकी 'मौलिक कृति' बतलाया गया है उसका क्या आधार है ? कोई भी आधार व्यक्त नहीं किया गया है; तब क्या अकलंकके ग्रन्थमें पाया जाना ही अकलंककी मौलिक कृति होनेका प्रमाण है ? यदि ऐसा है तो राजवार्तिक
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