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वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ
ऐसी हालत में 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक भट्टाकलंकदेवकी मौलिक कृति है, तिलोयपण्णत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा कुछ संगत मालूम नहीं होता । अस्तु; दोनों ग्रन्थोंके दोनों प्रकृत पद्योंको उद्धृत करके उनके विषयको हृदयङ्गम कर लेना उचित है ।
जो ण पमाण-णयेहि णिक्खेवेणं णिरक्खदे श्रत्थं ।
तस्साऽजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च (व) पडिहादि ॥ ८२ ॥ णा होदि पमाणं ण वि णादुस्स हृदयभावत्थो । णिक्खेववि उवा जुत्तीए प्रत्थपडिगहणं ॥ ८३ ॥ -तिलोयपण्णत्ती
प्रमाणनय निक्षेपैर्योऽर्थो नाऽभिसमीक्ष्यते ।
युक्तं चाऽयुक्तवद्भाति तस्याऽयुक्तं च युक्तवत् ॥ (१० ) ज्ञानं प्रमाणमित्याहु रुपायो न्यास उच्यते ।
यो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ [११] - धवला १,१, पृ० १६, १७ ।
तिलोयपण्णत्तीकी पहली गाथामें यह बतलाया है कि 'जो प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा श्रर्थका निरीक्षण नहीं करता है उसको प्रयुक्त ( पदार्थ ) युक्तकी तरह और युक्त ( पदार्थ ) श्रयुक्तकी तरह प्रतिभासित होता ।' और दूसरी गाथा में प्रमाण, नय और निक्षेपका उद्देशानुसार क्रमशः लक्षण दिया है और अन्त में बतलाया है कि यह सब युक्तिसे अर्थका परिग्रहण है । अतः ये दोनों गाथाएं परस्पर संगत हैं । और इन्हें ग्रंथसे अलग कर देने पर अगली 'इय णायं श्रवहारिय श्राइरिय परम्परागयं मणसा' ( इस प्रकार आचार्य परम्परासे चले आये हुए न्यायको हृदयमें धारण करके ) नामकी गाथा' असंगत तथा खटकनेवाली हो जाती है। इसलिए ये तीनों ही गाथाएं तिलोयपण्णत्तीकी अंगभूत हैं ।
धवला ( संतपरूवणा ) में उक्त दोनों श्लोकोंको देते हुए उन्हें 'उक्तञ्च' नहीं लिखा और न किसी खास ग्रन्थ के वाक्य ही कहा है। वे 'एत्थ किमठ' गयपरूवणमिदि ११ – यहां नयका प्ररूपण किसलिए किया गया है ? प्रश्नके, उत्तर में दिये गये हैं इसलिए वे धवलाकार द्वारा निर्मित अथवा उद्धृत भी हो सकते हैं। उधृत होनेकी हालत में यह प्रश्न पैदा होता है कि वे एक स्थान से उद्धृत किये गये है या दो से । यदि एकसे उद्धृत किये गये हैं तो वे लघीयस्त्रयसे उद्धृत नहीं किये गये यह सुनिश्चित है; क्योंकि
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लघीयस्त्र में पहला श्लोक नहीं है । और यदि ये दो स्थानोंसे उद्धृत किये ती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि दूसरा श्लोक अपने पूर्व में ऐसे श्लोककी
गये हैं तो यह बात कुछ अपेक्षा रखता है जिसमें
१. इस गाथाका नं ० ८४ है, ८८ नहीं ।
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