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जैनधर्ममें अहिंसा श्री स्वामी सत्यभक्त न्यायतीर्थ, साहित्य रत्न
जो जन्म लेता है वह एक न एक दिन मरता अवश्य है। या तो एक प्राणी दूसरे प्राणीको मार डालता है अथवा प्रकृति ही उसका जीवन समात कर देती है। इनमें से प्राणोको प्रकृतिकी अपेक्षा दूसरे प्राणीका डर ज्यादा है एक प्राणी दूसरे प्राणीके खूनका प्यासा है। इसलिए नीतिवाक्य भी बन गया है-"जीवो जीवस्य जीवनम्'। अर्थात् एक जीव दूसरे जीवके जीवनका अाधार है । मनुष्य सबमें श्रेष्ठ प्राणी है ! बुद्धिमान होनेसे बलवान भी है। इसलिए यह उपयुक्त नीतिवाक्यका सबसे ज्यादा दुरुपयोग कर सका है। अपने स्वार्थके लिए वह ऐसी हिंसा भी करता है जो आवश्यक नहीं कही जा सकतो परन्तु यह कार्य प्राणीसमाज और मनुष्यसमाजकी शान्तिमें बाधक है । इससे आत्मिक उन्नति भी रुक जाती है। इसलिए प्रत्येक धर्ममें थोड़ा-बहुत रूपमें हिंसाके त्यागका उपदेश दिया गया है और इसलिए 'अहिंसा परमो धर्मः” प्रत्येक धर्मका मूल मंत्र बन गया है। अहिंसाकी सूक्ष्म व्याख्या--
लेोकेन जैन धर्मने इस मंत्रकी जैसी सूक्ष्म व्याख्या की है वह वेजोड़ है । जैन धर्मकी अहिंसा, अहिंसाका चरम रूप है । जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, आदिके अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिमें भी जीव हैं । मिट्टीके ढेलेमें कीड़े, आदि जीव तो हैं ही, परन्तु मिट्टी का ढेला स्वयं पृथ्वी-कायिक जीवोंके शरीरका पिंड है। इसी तरह जल बिन्दुमें यन्त्रोंके द्वारा दिखने वाले अनेक जीवोंके अतिरिक्त वह स्वयं जल-कायिक जीवोंके शरीरका पिंड है। यही बात अग्निकाय, आदिके विषयमें भी समझनी चाहिये । पारसी धर्म पर प्रभाव--
इस प्रकारका कुछ विवेचन पारसियोंकी धर्म पुस्तक 'श्रावस्ता' में भी मिलता है। जैसे हमारे यहां प्रतिक्रमणका रिवाज है उसो तरह उनके यहां भी पश्चात्तापकी क्रिया करनेका रिवाज है । उस क्रियामें जो मंत्र बोले जाते हैं उनमें से कुछका भावार्थ इस तरह है-"धातु उपधातुके साथ जो मैंने दुर्व्यवहार (अपराध) किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।” “जमीनके साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं ।' “पानी अथवा पानीके अन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप
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