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अहिंसाकी साधना
२.जिसका ज्ञान असम्यक होगा बर संहनन उत्तम होगा वह हिंसाका महा साधक होगा।
३-जिसका ज्ञान सम्यक् होगा और संहनन उत्तम न होगा वह अहिंसाका अणु साधक (उपासक) होगा।
४—जिसका ज्ञान सम्यक होगा और संहनन उत्तम होगा वह अहिंसाका महा साधक होगा।
वास्तवमें तो हिंसा या अहिंसाके साधक मनुष्यके पास मुख्य शक्ति एक 'उत्तम संहनन" है। जिसे दूसरे शब्दोंमें शूरत्त्व या वीरत्व कहते हैं । अतएव कहा है
"जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा" अर्थात् हिंसा-प्रवृत्ति-में जो शूरवीर हो सकते हैं वे ही अहिंसानिवृत्ति-धर्म-में शूरवीर हो सकते हैं ।
''जिनतें घर माहिं कछू न बन्योतिनते बनमाहिं कहा बनिहैं ?" "करें वह कर्म गर तो पहुंच जावे सातमें दोज़ख । करें सद कर्म पावें मोक्ष, शूरा इसको कहते हैं ।"
(दौलतराम मित्र) "देखी हिस्टरी इस बातका कामिल यकीं पाया।
जिसे मरना नहीं पाया उसे जीना नहीं पाया ॥" "हिंसा करनेका पूरा सामर्थ्य रखते हुए भी जो स्वेच्छासे-प्रेम भावसे-हिंसा नहीं करता है वही अहिंसा धर्म पालन करने में समर्थ होता है ।
"डरकर जो हिंसा नहीं करता है वह तो हिंसाकर ही चुका है। चूहा बिल्लीके प्रति अहिंसक नहीं है, उसका मन बिल्लीकी हिंसा निरंतर करता रहता है।"
(महात्मा गांधी) "शूर वही है जिसकी छातीमें घाव हो, पीठमें नहीं । अर्थात् जो मैदाने जंगसे भागा न हो।"
"भाग निकलनेकी-सुविधा-होते हुए भी जो छाती तानकर शत्रुके सामने खड़ा रहे वह शूरवीर है।"
किंतु इस विषयमें एक बात जान लेना अत्यंत जरूरी है कि सम्यक् ज्ञान और उत्तम संहनन ( शूर वीरता ) ये दोनों बल होते हुए भी यदि मनुष्यकी परिस्थिति अनुकूल नहीं है, जैसे-मनुष्य यदि दूसरे व्यक्तियोंका अाश्रय दाता है, कुटुम्बी है या राजा है तो, वह अहिंसाका महान साधक नहीं हो सके गा । बल्कि वह कभी कभी रक्षार्थ अनिच्छापूर्वक हिंसा करता हुश्रा भी दिखायी दे गा । फिर भी
१ पंचाध्यायी २, २७३.५६४ । २ पचाध्यायी २ इलो ८०९ तथा ८१९ । उत्तर पुराण इलो०४१९-२०
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