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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार, अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर
ग्रंथका सामान्य परिचय और महत्व --
तिलोयपण्णत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) तीन लोकके स्वरूपादिका निरूपक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथ है --प्रसंगोपात्त जैनसिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहासकी भी कितनी ही सामग्री इसमें है । इसके सामान्यजगत्स्वरूप, नरकलोक, भवनवासिलोक, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, सुरलोक, और सिद्धलोक नामके नौ महा अधिकार हैं । अवान्तर अधिकारोंकी संख्या १८० के लगभग है; क्योंकि द्वितीयादि महाधिकारोंके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७, १७, २१, ५ ऐसे १३१ हैं और चौथे महाधिकारके जम्बूद्वीप, घातकी - खण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारों में से प्रत्येकके फिर सोलह, सोलह ( ४८ ) अन्तरअधिकार हैं । इस तरह यह ग्रंथ अपने विषयका विस्तार से प्ररूपण करता है। इसका प्रारम्भ-सिद्धि कामना के लिए सिद्धस्मरणमय निम्न गाथासे होता है
"अठ्ठावह कम्म - वियला णिठ्ठिय-कजा पणठ्ठ-संसारा । दिट्ठ-सयलठ्ठ - सारा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ १ ॥” न्तिम भाग इस प्रकार है
"पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुण [हर] वसहं ।
दट्ठूण परिसवसहं [?] जदिवसहं धम्म-सुत्त पाढग-वसहं ॥ ६-७८ ॥
चुरिणसरूवं श्रत्थं करणसरूव पमाण होदि कि [?] जं तं ।
अट्ट-सहस्स- पमाणं तिलोयपराणप्ति णामाए ॥ ७६ ॥
एवं आइरिय-परंपरागए तिलोयपराणत्तीए सिद्धलोयस्वरूवणिरूवणपराणत्ती णाम raमो महाहियरो सम्मत्तो ॥
मगभावण पवयण भत्तिष्पचोदिदेण मया । भणिदं गंथप्पवरं सोहंतु वहु सुदाइरिया ॥ ८० ॥ तिलोय पण्णत्ती सम्मत्ता ॥"
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