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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ निरूपण करते हुए जो कहा गया है कि 'वह केवली लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्वलोकमें रहता है। और लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्वलोकका प्रमाण ऊर्ध्वलोकके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक दो ऊर्ध्वलोक प्रमाण है । वह नहीं बनता । और इसलिये दोनों लोकोंकी एकता सिद्ध होती है। अतः प्रमाणलोक [ उपमालोक ] श्राकाश-प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा छहद्रव्योंके समुदायरूप लोकके समान है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये ।
इकके बाद यह शंका होने पर कि, 'किस प्रकार पिण्ड [घन ] रूप किया लोक सःतराजुके घन प्रमाण होता है ?, वीरसेनस्वामीने उत्तरमें बतलाया है कि 'लोक सम्पूर्ण श्राकाशके मध्यभागमें स्थित हैं । चौदह राजु अायाम वाला है , दोनों दिशाओंके अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशाके मूल; अर्धभाग, त्रिचतुर्भाग और चरमभागमें क्रमसे सात, एक, पांच और एक राजु विस्तार वाला है तथा सर्वत्र सातराजु मोटा है, वृद्धि और हानिके द्वारा उसके दोनों प्रान्तभाग स्थित हैं, चौदह राजु लम्बी एक राजुके वर्ग प्रमाण मुखवाली लोकनाली उसके गर्भ में है, ऐसा यह पिण्डरूप किया गया लोक सातराजुके घनप्रमाण अर्थात् ७xx७ = ३४३ राजु होता है । यदि लोकको ऐसा नहीं माना जाता है तो प्रतर-समुद्घात गत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ जो 'मुहतल-समास-श्रद्धं' और 'मूलं मज्झेण गुणं' नामकी दो गाथाएं कही गयी हैं वे निरर्थक हो जायं गी; क्योंकि उनमें कहा गया घनफल लोकको अन्यप्रकारसे मानने पर संभव नहीं है। साथ ही यह, भी बतलाया है कि इस [ उपर्युक्त आकारवाले ] लोकका शंकाकारके द्वारा प्रस्तुत की गयी प्रथम गाथा [ 'हेहा मज्झे उवरिं वेत्तासन झल्लरी मुइंग णिभो' ] के साथ विरोध नहीं है। क्योंकि एक दिशामें लोक वेत्रासन और मृदंगके श्राकार दिखायी देता है, और ऐसा नहीं कि उसमें झल्लरीका श्राकार न हो; क्योंकि मध्यलोकमें स्वयंभूरमण समुद्रसे परिक्षिप्त तथा चारों ओरसे असंख्यात योजन विस्तारवाला और एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती देश चन्द्रमण्डलकी तरह झल्लरीके समान दिखायी देता है। और दृष्टान्त सर्वथा दार्टान्तके समान होता नहीं, अन्यथा दोनोंके ही अभावका प्रसंग पा जायगा। ऐसा भी नहीं कि [द्वितीय सूत्रगाथामें बतलाया हुश्रा ] तालवृक्षके समान श्राकार इसमें असम्भव है, क्योंकि एक दिशासे देखने पर तालवक्षके समान आकार दिखायी देता है! और तीसरी गाथा [ लोयस्म विक्खंभो चउप्पयारो] के साथ भी विरोध नहीं है। क्योंकि यहां पर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशात्रोंमें गाथोक्त चारों ही प्रकारके विष्कम्भ दिखायी देते हैं। सातराजुकी मोटाई 'करणानुयोग सूत्रके विरुद्ध नहीं है; क्योंकि उस सूत्रमें उसकी यदि विधि नहीं है तो प्रतिषेध भी नहीं है-विधि और प्रतिषेध दोनोंका अभाव है। और इसलिए लोकको उपयुक्त प्रकारका ही ग्रहण करना चाहिये ।'
१ 'पदरगदा केवली केडि खेत्ते, लोंगे असंखेज्जदि भागूणे उठलोगेन दुवे ।उहृलोगा उद्दलोंगस्सतिभागेण देसूणेग सादरेगा।
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