________________
वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
नहीं होता। इसके सिवाय, बोधपाहुड की गाथा सम्बन्धी दूसरे प्रमाणका कोई विरोध नहीं किया जाना ही सूचित करता है कि उसका विरोध शक्य नहीं है। दोनों ही अवस्थाओं में कोण्डकुन्दपुरान्वयकी उक्त कल्पना से कोई परिणाम नहीं निकलतर तथा प्रबलतर बाधाकी उपस्थिति होनेके कारण कुन्दकुन्दके समय सम्बन्धी उक्त धारणा टिकती ही नहीं है ।
नियमसारकी उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए लोयविभागेषु पदको लेकर जो उपर्युक्त दो पत्तियां की थीं उनका भी कोई समुचित समाधान अब तक नहीं मिला है। मूल लेखमें तो प्रायः इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि "बहुवचनका प्रयोग इसलिए भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभाग के अनेक विभागों या अध्यायोंमें उक्तभेद देखने चाहिए ।" परन्तु ग्रन्थकार कुन्दकुन्दाचार्यका यदि ऐसा अभिप्राय होता तो वे 'लोयविभाग विभागेसु" ऐसा पद रखते, तभी उक्त श्राशय घटित हो सकता था, परन्तु ऐसा नहीं है, इसलिए प्रस्तुत पदके 'विभागेसु' पदका आशय यदि ग्रन्थके विभागों या अध्यायका लिया जाता है तो ग्रन्थका नाम 'लोक' रह जाता है - 'लोकविभाग' नहीं - - इससे तो सारी युक्ति ही पलट जाती है, जो 'लोकविभाग' ग्रंथके उल्लेखको मान कर दी गयी है । यद्यपि इसपर उस समय ध्यान नहीं दिया गया तथापि बाद में इसकी निःसारताका भान अवश्य हुआ है जैसा कि परिशिष्टके निम्न भागसे सिद्ध है—
'लोयविभागेसु णादव्वं' पाठ पर जो यह आपत्ति की गयी है कि वह बहुवचनान्त पद है, इसलिए किसी लोकविभाग नामक एक ग्रंथके लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता, सो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठको 'लोयविभागेसु णाद' इस प्रकार पढ़ना चाहिये । 'सु' को 'णादव्वं' के साथ मिला देने से एक वचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया 'सुणादव्वं ' ( सुज्ञातव्यं हो जायगी । पद्मप्रभने भी शायद इसीलिए उसका अर्थ 'लोकविभागाभिधान परमागमे किया है |
इस पर इतना ही निवेदन है कि प्रथम तो मूलका पाठ जब 'लोयविभागेसु यादव्वं' रूपमें स्पष्ट मिल रहा है, टीका में संस्कृत छाया 'लोक विभागेसु ज्ञातव्यः १ से पुष्ट हो रहा है तथा टीकाकार पद्यप्रभने क्रिया पदके साथ 'सु' का सम्यक् आदि कोई अर्थ व्यक्त भी नहीं किया मात्र विशलेषण रहित 'दृष्टव्यः' पदके द्वारा उसका अर्थ व्यक्त किया है, तब मूल पाठकी अपने किसी प्रयोजनके लिए अन्यथा कल्पना करना ठीक नहीं है । दूसरे, यह समाधान तभी कुछ कारगर हो सकता है जब पहले मर्कराके ताम्रपत्र और बोधपाहुड-गाथासन्बन्धी उन दोनों प्रमाणोंका निरसन कर दिया जाय जिनका उपर उल्लेख हुआ है;
१ मूल में 'एदेसिं वित्थार' पदोंके अनन्तर 'लोयविभागेसु गादन्य' पर्दोका प्रयोग हैं। शब्द नपुंसकलिंग में भी प्रयुक्त होता है, इसीसे 'विस्तार' पदके साथ 'णादव्व' क्रिया
३३६
चू ंकि प्राकृत में ' वित्थार'
का प्रयोग हुआ है । परन्तु
.