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वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ
ही, लोक-प्रमाण दक्षिण उत्तर दिशामें सर्वत्र जगश्रेणी जितना अर्थात् सात राजु और पूर्व-पश्चिम दिशा में अधोलोकके पास सात राजु, मध्य लोकके पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पांच राजु और लोकाग्रमें एक राजु है, ऐसा सूचित किया है। इसके सिवाय, तिलोयपण्णत्तीका पहला महाधिकार सामान्य लोक, अधोलोक व ऊर्ध्व लोकके विविध प्रकारसे निकाले गये घनफलों से भरा पड़ा है जिससे वीरसेन त्वामी की मान्यता की ही पुष्टि होती है ।' तिलोयपण्णत्तीका यह अंश यदि वीरसेनस्वामी के सामने मौजूद होता तो "वे इसका प्रमाण रूपसे उल्लेख नहीं करते यह कभी संभव नहीं था । " चूंकि वीरसेनने तिलोयपण्णत्ती की उक्त गाथाएं अथवा दूसरा अंश धवला में अपने विचार के अवसर पर प्रमाण रूपसे उपस्थित नहीं किया श्रतः उनके सामने जो 'तिलोयपण्णत्ती थी और जिसके अनेक प्रमाण उन्होंने धवला में उद्धृत किये हैं वह वर्तमान तिलोयपण्णत्ती नहीं थी - इससे भिन्न दूसरी ही तिलोयपण्णत्ती होनी चाहिये, यह निश्चित होता है ।
(२) “तिलोपण्यत्ति में पहले अधिकारकी सातवीं गाथा से लेकर सतासीवीं गाथा तक ८१ गाथाओं में मंगल श्रादि छह अधिकारों का वर्णन है यह पूराका पूरा वर्णन संतपरूवणाकी धवलाटीका में श्राये हुए वर्णन से मिलता हुआ है । ये छह अधिकार तिलोयपण्णत्ति में अन्यत्र से संग्रह किये ये हैं इस बातका उल्लेख स्वयं तिलोयपण्णत्तिकारने पहले अधिकारकी ८५ वीं गाथामें किया है तथा धबलामें इन छह अधिकारोंका वर्णन करते समय जितनी गाथाएं या श्लोक उद्धृत किये गए हैं वे सब अन्यत्र से लिये गये हैं तिलोयपण्णत्तीसे नहीं; इससे मालूम होता है कि तिलोयपण्णत्तिकार के सामने धवला श्रवश्य रही है ।" ( दोनों ग्रंथोंके कुछ समान उद्धरणों के अनंतर ) ' इसी प्रकारके पचासों उद्धरण दिये जा सकते हैं जिनसे यह जाना जा सकता है कि एक ग्रंथ लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है । यहां एक विशेषता और है कि धवला में जो गाथा या श्लोक अन्यत्र से उद्धृत हैं तिलोयपण्णत्ति में वे भी मूल में शामिल कर लिये गये हैं । इससे तो यही ज्ञात होता है कि तिलोयपण्णत्ती लिखते समय लेखकके सामने घवला अवश्य रही है ।
( ३ ) 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक इन ( भट्टाकलंकदेव ) की मौलिक कृति है जो लवीयस्त्रयके छठे अध्याय में श्राया है । तिलोयपण्णत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा। लघोयस्त्रय में जहां यह श्लोक श्राया है वहांसे इसके अलग कर देनेपर प्रकरण ही अधूरा रह जाता है। पर तिलोयपण्णत्ति में इसके परिवर्तित रूपकी स्थिति ऐसे स्थल पर है कि यदि वहां से उसे अलग भी कर दिया जाय तो भी एकरूपता बनी रहती है । वीरसेनस्वामीने घवलामें उक्त श्लोकको उद्धृत किया है। तिलोयपयत्तिको देखने से ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपण्यत्तिकारने इसे लघीयस्त्रयसे न लेकर धवलासे ही
१. तिलोय पण्णत्तिके पहले अधिकारकी गाथाएं २१५ से २५१ तक ।
१. मंगल पहुदिछक्क वक्खाणिय विविध गन्धजुत्तीहिं ।
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