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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
रूप स्वीकार किया जाता है तब किस आधार पर उक्त प्राकृत लोकविभागको 'बड़ा' सोचा जा सकता है ? किस आधार पर यह कल्पना की जाय कि 'व्याख्यास्यामि समासेन' इस वाक्य द्वारा सिंहसूरि स्वयं अपने ग्रन्थ निर्माण की प्रतिज्ञा करते हैं और वह सर्वनन्दीकी ग्रन्थ निर्माण प्रतिज्ञाका अनुवादित रूप नहीं है ? इसी तरह 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' यह वाक्य भी सर्वनन्दीके वाक्यका अनुवादितरूप नहीं है । जब सिंहसूरि स्वतंत्ररूपसे किसी ग्रंथका निर्माण अथवा संग्रह नहीं कर रहे हैं और न किसी ग्रन्थकी व्याख्या ही कर रहे हैं बल्कि एक प्राचीन ग्रन्थका भाषा के परिवर्तन द्वारा (भाषायाः परिवर्तनेन ) अनुवाद मात्र कर रहे हैं तब उनके द्वारा 'व्याख्यास्यामि समासेन' जैसा प्रतिज्ञावाक्य नहीं बन सकता और न श्लोक संख्याको साथ में देता हुआ 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' वाक्य ही बन सकता है। इससे ये दोनों वाक्य मूलकार सर्वनन्दिके ही वाक्योंके अनुवादित रूप जान पड़ते हैं। सिंहसूरिका इस ग्रन्थकी रचनासे केवल इतना ही सम्बन्ध है कि बे भाषा परिवर्तन द्वारा इसके रचयिता हैं - विषयके संकलनादि द्वारा नहीं -- जैसा कि उन्होंने अन्तके चार पद्यों में से प्रथम पद्य में सूचित किया है और ऐसा ही उनकी ग्रन्थ प्रकृति से जाना जाता है। मालूम होता है इन सब बातों पर ध्यान नहीं देकर ही किसी धारणके पीछे युक्तियोंको तोड़-मरोड़ कर समाधान किया गया है।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दको यतिवृषभके बादका अथवा सम-सामयिक माननेमें कोई बल नहीं है । 'आर्यमक्षु और नागहस्तिका गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य होना' स्वयं स्थिर नहीं है जिसको मूलाधार मानकर और नियमसारकी उक्त गाथामें सर्वनन्दीके लोकविभागकी श्राशा लगाकर ही दूसरे प्रमाणोंका ताना-बाना किया गया था; जो कि नहीं हो सका। प्रत्युत ऊपर जो प्रमाण दिये गये है उनसे यह भले प्रकार फलित होता है कि कुंदकुंद का समय विक्रमकी दूसरी शती तक तो हो सकता है - उसके बादका नहीं, इसलिए छठी शती में होनेवाले यतिवृषभ उनसे कई शती बाद हुए हैं।
नयी विचार धारा
श्रा० यतिवृषभके समय के विषय में 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकाल श्रादिका विचार" नामक लेख द्वारा नयी मान्यता प्रस्तुत की गयी है, इसके अनुसार वर्तमान तिलोयपण्णत्ती विक्रमकी ९ वीं शती अथवा शक सं० ७३८ ( वि० सं० ८७३ ) से पहलेकी बनी हुई नहीं है और उसके कर्ता भी यतिवृषभ नहीं हैं । इस विचारके समर्थन में पांच प्रमाण प्रस्तुत किये हैं जो लेखकके ही शब्दों में निम्न प्रकार हैं-
( १ ) वर्तमान में लोकको उत्तर और दक्षिण में जो सर्वत्र सात स्थापना धवलादिके कर्ता वीरसेन स्वामीने की हैं-- वीरसेन स्वामीसे पहले १ - जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ११, किरण १ में पं० फूलचन्द्र शात्रीका लेख |
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राजु मानते हैं उसकी वैसी मान्यता नहीं थी ।