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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ क्योंकि उनका निरसन अथवा प्रतिवाद न हो सकने की हालत में जब कुन्दकुन्दका समय उन प्रमाणों द्वारा विक्रमकी दूसरी शती अथवा उससे पहलेका निश्चित होता है तब 'लोयविभागे' पदकी कल्पना करके उसमें शक सं० ३८० अर्थात् विक्रमकी छठी शतीमें बने हुए लोकविभाग ग्रन्थके उल्लेखकी कल्पना करना कुछ भी अर्थ नहीं रखता। इसके सिवाय मैंने जो यह आपत्ति की थी कि नियमसारकी उक्त गाथा के अनुसार प्रस्तुत लोकविभाग में तिर्यंचोंके चौदह भेदोंका विस्तार के साथ कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है, उसका भले प्रकार प्रतिवाद होना चाहिये अर्थात् लोकविभागमें उस कथन के अस्तित्वको स्पष्ट करके बतलाना चाहिये, जिससे 'लोयविभागे' पदका वाच्य प्रस्तुत लोकविभाग ग्रन्थ समझा जा सके । परन्तु इस बात का कोई ठीक समाधान न करके उसे टाला गया है। इसीसे परिशिष्ट में यह लिखा है कि “लोकविभाग में चतुर्गत-जीव भेदोंका या तियेंचों और देवोंके चौदह और चार भेदोंका विस्तार नहीं है, यह कहना भी विचारणीय है । उसके छठे अध्यायका नामही तिर्यक् लोकविभाग' है और चतुर्विध देवोंका वर्णन भी है । " परन्तु "यह कहना" शब्दों के द्वारा जिस वाक्यको मेरा वाक्य बतलाया गया उसे मैंने कब और कहां कहा है ? मेरी आपत्ति तो तिर्यञ्चोंके चौदह भेदोंके विस्तार कथन तक ही सीमित है, और वह ग्रन्थको देखकर ही की गयी है, फिर उतने अंशों में ही मेरे कथनको न रखकर अतिरिक्त कथन के साथ उसे 'विचारणीय' प्रकट करना, आदि टालना नहीं तो क्या है ? जान पड़ता है कि लेखकको उक्त समाधानकी गहरायी का ज्ञान था - इसलिए उन्होंने परिशिष्ट में ही, एक कदम आगे, समाधानका एक दूसरा रूप अख्तियार किया है। जैसा कि "ऐसा मालूम होता है कि सर्वनन्दिका प्राकृत लोकविभाग बड़ा हो गा । सिंहसूरिने उसका संक्षेप किया है। 'व्याख्यास्यामि समासेन' पदसे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं । इसके सिवाय श्रागे 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' से भी यही ध्वनित होता है - संग्रहका भी एक अर्थ संक्षेप होता है । जैसे 'गोम्मट संगह सुत्त' आदि । इसलिए यदि संस्कृत लोकविभाग में तिर्यंचोंके चौदह भेदोंका विस्तार नहीं, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थ में रहा होगा, संस्कृत में संक्षेप करनेके कारण नहीं लिखा गया ।" इस श्रंशसे स्पष्ट है ।
यह समाधान संस्कृत लोकविभाग में तिर्यंचोंके चौदह भेदोंका विस्तार कथन न होनेकी हालत में, अपने बचाव की और नियम सारकी उक्त गाथामें सर्वनन्दिके लोकविभाग-विषयक उल्लेखकी धारणाको बनाये रखने की युक्ति मात्र है । परन्तु “ उपलब्ध लोकविभाग' जो कि संस्कृत में है बहुत प्राचीन नहीं है । प्राचीनता से उसका इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् ३८० के बने ग्रंथ से हुए अनुवाद किया गया है" अंश द्वारा संस्कृत लोकविभागको सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका अनुवादित
- संस्कृत में 'विस्तार' शब्द पुलिंग माना गया है अतः टीका में संस्कृतछाया 'ऐतेषां विस्तारः लोकविभागेषु ज्ञातव्यः' दी गयी है, इसलि 'ज्ञातव्यः' क्रियापद ठीक है। ऊपर जो 'सुज्ञातव्य' रूप दिया है उसके कारण उसे गलत न समझ लेना चाहिये ।
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