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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ परन्तु यह विवेचन किसी बद्ध मूल धारणके कारण ग्राह्य नहीं हुआ इसीलिए मर्कराके ताम्रपत्रको कुन्दकुन्दके स्व-निर्धारित समय ( शक सं० ३८० के बाद ) के मानने में "सबसे बड़ी बाधा" स्वीकार करते हुए और यह बतलाते हुए भी कि "तब कुन्दकुन्दका यतिवृषभके बाद मानना असंगत हो जाता है" लिखा गया है “पर इसका समाधान एक तरह हो सकता है और वह यह कि कौण्डकुन्दान्वयका अर्थ हमें कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा न करके कौण्डकुन्दपुर नामक स्थानसे निकली हुई परम्परा करना चाहिये । जैसे श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपुरान्वय, अरुङ्गलकी अरुङ्गलान्वय, कित्तूरकी कित्तूरान्वय, मथुराकी माथुरान्वय, आदि।"
परन्तु इस संभावित समाधानकी कल्पनाके समर्थन में एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया है, जिससे 'कुन्दकुन्दपुरान्वय' का कोई स्वतंत्र अस्तित्व जाना जाता अर्थात् एक भी ऐसा उदाहरण नहीं दिया है जिससे यह मालूम होता कि श्रीपुरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दपुरान्वय का भी कहीं उल्लेख अाया है अथवा यह मालूम होता कि जहां पद्मनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दका उल्लेख अाया है वहां उसके पूर्व कुन्दकुन्दान्वयका भी उल्लेख अाया है और उसी कुन्दकुन्दान्वयमें उन पद्मनन्दि कुन्दकुन्दको बतलाया है, जिससे ताम्रपत्रके “कुन्दकुन्दान्यव' का अर्थ 'कुन्दकुन्द पुरान्वय' कर लिया जाता । 'विना समर्थनके केवल कल्पना से काम नहीं चल सकता। वास्तवमें कुन्दकुन्दपुरके नामसे किसी अन्वयके प्रतिष्ठित अथवा प्रचलित होनेका जैन साहित्यमें कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता । प्रत्युत इसके कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय के प्रतिष्ठित और प्रचलित होनेके सैकड़ों उदाहरण शिलालेखों तथा ग्रन्थ प्रशस्तियों में उपलब्ध होते हैं
और वह देशादिके भेदसे 'इङ्गलेश्वर' १ आदि अनेक शाखाओं (-बलियों) में विभक्त रहा है । और जहां कहीं कुन्दकुन्दके पूर्वकी गुरुपरम्पराका कुछ उल्लेख देखने में आता है वहां उन्हें गौतमगणधरकी सन्तति में अथवा श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्य चन्द्रगुप्तके अन्वय (वंश ) में बतलाया है । जिनका कौण्डकुन्दपुरके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं हैं । श्रीकुन्दकुन्द मूलसंघके ( नन्दिसंघ भी जिसका नामान्तर है ) अग्रणी गणी थे और देशीगणका उनके अन्वयसे सम्बन्ध रहा है, ऐसा श्रवणबेलगोलके ५५ (६९) संख्याके शिालालेखके निम्न वाक्योसे जाना जाता हैश्रीमतो वर्द्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने । श्री कोण्डकुन्दनामाऽभून्मूलसङ्घाग्रणी गणी ॥३॥ तस्याऽन्वयेऽजनि ख्याते......देशिके गणे। गुणी देवेन्द्रसैद्धान्तदेवो देवेन्द्रवन्दितः॥४॥
इसलिए मर्कराके ताम्र पत्रमें देशीगणके साथ जो कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख है वह कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वयका ही उल्लेख है कुन्दकुन्दपुरान्वयका नहीं । इससे उक्त कल्पनामें कुछ भी सार मालूम १. सिरि मूलसघ देसियगण पुत्थयगच्छ-कोंडकुदाणं । परमण्ण-इगलेसर-बलिम्मि जादस्स मुणियहाणस्स ।।
-भाव त्रिभंगी ११८, परमागमसार २२६ । २. श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०८,