________________
तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
२५ वर्ष पहले हुए थे तब कुन्दकुन्द भी यतिवृषभके सम-सामयिक बल्कि कुछ पीछे के ही होंगे, क्योंकि उन्हें दोनों सिद्धान्तोंका ज्ञान गुरुपरिपाटीसे प्राप्त हुअा था । अर्थात् एक दो गुरू उनसे पहले और मानने हों गे ।' अन्तमें कुछ शिथिल श्रद्धाके साथ इन्नद्रन्दि श्रुतावतारको मूलाधार मानते हुए लिखा गया है.-"गरज यह कि इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार पद्यनन्दि (कुन्दकुंद) का समय यतिवृषभसे बहुत पहले नहीं जा सकता । अब यह बात दूसरी है कि इन्द्रनन्दिने जो इतिहास दिया है, वही गलत हो और या ये पद्मनन्दि कुंदकुंदके बादके दूसरे ही प्राचार्य हों और जिस तरह कुन्दकुन्द कोण्डकुण्डपरके थे उसी तरह पद्मनन्दि भी कोण्डकुण्डपुरके हों।"
___ बादमें जब जयधवलाका वह कथन पूरा मिल गया जिसका एक अंश 'पुणो तात्रो' से श्रारंभ करके मैंने उक्त लेखमें दिया था और जिसका अधिकांश ऊपर उद्धृत किया गया है तब ग्रन्थ छप चुकनेपर उसके परिशिष्टमें उस कथनको देते हुए यह स्पष्ट सूचित किया गया है कि "नागहस्ति और
आर्यमंक्षु गुणधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे ।" इस सत्यको स्वीकार करनेपर उस दूसरी युक्तिकी क्या स्थिति रहेगी, इस विषयमें कोई सूचना नहीं की गयी है यद्यपि करनी चाहिये थी । स्पष्ट है कि वह सारहीन हो जाती है । और कुन्दकुन्द द्विविधसिद्धान्तमें चूर्णिका अन्तर्भाव न होनेके कारण यतिवृषभसे बहुत पहले के विद्वान भी हो सकते हैं।
अब रही तीसरी युक्ति उसके विषयमें मैंने अपने उक्त लेख में यह बतलाया था कि 'नियमसारकी उस गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदका अभिप्राय सर्वनन्दीके उक्त लोकविभाग ग्रन्थसे नहीं है और न हो सकता है; बल्कि बहुवचनान्त पद होनेसे वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक ग्रन्थ विशेष का भी वाचक नहीं हैं। वह तो लोकविभाग-विषयक कथन वाले अनेक ग्रन्थों अथवा प्रकरणोंके संकेतको लिये हुए जान पड़ता है और उसमें खुद कुन्दकुन्दके 'लोय पाहुड'-'संठाण पाहुड' जैसे ग्रन्थ तथा दूसरे लोकानुयोग अथवा लोकालोकके विभागको लिये हुए करणानुयोग-सम्बन्धी ग्रन्थ भी शामिल किये जा सकते हैं इसलिए 'लोयविभागेसु' इस पदका जो अर्थ कई शताब्दियों पीछेके टीकाकार पद्मप्रभने 'लोकविभागाभिधान परमागमे' ऐसा एक वचनान्त किया है वह ठीक नहीं है । साथ ही उपलब्ध लोकविभागमें, जो कि ( उक्तं च वाक्योंको छोड़कर ) सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका ही अनुवादित संस्कृत रूप है, तिर्यञ्चोंके उन 'चौदह भेदों के विस्तार कथनका कोई पता भी नहीं, जिसका उल्लेख नियमसार की उक्त गाथा में किया गया है । इससे मेरा उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण और भी ज्यादा पुष्ट होता है। इसके सिवाय, दो प्रमाण ऐसे हैं जिनकी मौजूदगी में कुन्दकुन्दका समय शक संवत् ३८० ( वि० सं० ५१५)
१. मेरे इस विवेचनरो, जो 'जैनजगत' वर्ष ८ अङ्क ९ के एक पूर्ववती लेखमें प्रथमतः प्रकट हुआ था, डा० ए.
एन० उपाध्ये एम० ए० ने प्रवचनसारको प्रस्तावना (पृ. २२, २३ ) में अपनी पूर्ण सहमति व्यक्त की है।