________________
वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
के बादका किसी तरह भी नहीं हो सकता। उनमें एक प्रमाण मर्कराके ताम्रपत्रका था जो शक सं० ३८८ का उत्कीर्ण है और जिसमें देशी गणान्तर्गत कुन्दकुन्दके अन्वय (वंश) में होने वाले गुणचंद्रादि छह श्राचार्योंका गुरु शिष्य क्रमसे उल्ले व है। दूसरा प्रमाण स्वयं कुन्दकुन्दके बोधपाहुडकी 'सद्दवियारोहूत्रो' नामकी गाथा है जिसमें कुन्दकुन्द ने अपने को भद्रबाहुका शिष्य सूचित किया है।
प्रथम प्रणामको उपस्थित करते हुए मैंने बतलाया था कि 'यदि मोटे रूपसे गुणचन्द्रादि छह आचार्यों का समय १५० वर्ष ही कल्पना किया जाय; जो कि उस समयकी श्रायु-कायादिकको स्थितिको देखते हुए अधिक नहीं कहा जा सकता, तो कुन्दकुन्दके वंशमें होनेवाले गुणचन्द्रका समय शक संवत् २३८ (वि० सं० ३७३ ) के लगभग ठहरता है। और चूंकि गुणचन्द्राचार्य कुन्दकुन्दके साक्षात् शिष्य या प्रशिष्य नहीं थे बल्कि कुन्दकुन्दके अन्वय (वंश) में हुए हैं और अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिए कम से कम ५० वर्षका समय मान लेना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसी हालत में कुन्दकुन्दका पिछला समय उक्त ताम्रपत्र परसे २०० ( १५०+५० ) वर्ष पूर्वका तो सहज ही में हो जाता है । इसलिए कहना होगा कि कुन्दकुन्दाचार्य यतिवृषभसे २०० वर्षसे भी अधिक पहले हुए हैं । दूसरे प्रमाणमें गाथाको' उपस्थित करते हुए लिखा था कि इस गाथामें बतलाया है कि 'जिनेन्द्रने भगवान महावीरने-अर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषा सूत्रोंमें शब्द विकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दोंमें उसे गूंथा गया है,-भद्रबाहुके कुछ शिष्योंने उन भाषा सूत्रों परसे उसको उसी रूपमें जाना है और (जानकर) कथन किया है।' इससे बोधपाहुडके कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहुके शिष्य मालूम होते हैं । और ये भद्रबाहुश्रुतकेवलीसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु जान पड़ते हैं, जिन्हे प्राचीन ग्रन्थकारोंने 'श्राचाराङ्ग' नामक प्रथम अंगके धारियोंमें तृतीय विद्वान सूचित किया है और जिनका समय जैनकाल गणनाअोंके अनुसार वीर-निर्वाण-संवत् ६१२ अर्थात् वि० सं० १४२ से (भद्रबाहु द्वितीयके समाप्ति कालसे) पहले भले ही हो, परन्तु पीछेका मालूम नहीं होता। क्योंकि श्रतकेवली भद्रबाहके समयमें जिनकथित श्रतमें ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुअा था, जिसे गाथामें 'सद्द वियारो हो भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं' इन शब्दों द्वारा सूचित किया गया है- वह अविच्छिन्न चला अाया था । परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषासूत्रों में परिवर्तित हो गया था। इसलिए कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी दूसरी शती तो हो सकता है परन्तु तीसरी या तीसरी शती के बादका वह किसी तरह भी नहीं बनता।'
१ सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं । सो तह कहियंणायं सीसैणय भद्दाहुस्स ।। ६१ ।। २ जैन कालगणनाओंका विस्तार जाननेके लिए देखो लेखक द्वारा लिखित 'खामी समन्तभद्र' । इतिहास ) का 'समय निर्णय' प्रकरण पृ० १८३ रो तथा 'भ० महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक ।