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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
और भी स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृतका उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रख कर ही लिखा गया है।
इस सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है कि संस्कृत लोकविभागके अन्त में उक्त दोनों पद्योंके बाद निम्न पद्य दिया है'पंचदशशतान्याहुः षट्त्रिंशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संगहस्त्वेदं छंदसानुष्टभेन च ॥५॥
इसमें ग्रंथकी संख्या १५३६ श्लोक-परिमाण बतलायो है, जब कि उपलब्ध' संस्कृत लोकविभागमें वह २०३० के करीब जान पड़ती है । मालूम होता है कि यह १५३६ की श्लोक संख्या पुराने प्राकृत लोकविभाग की है और उसके संख्या सूचक पद्यका भी यहां अनुवाद कर दिया है । संस्कृत ग्रन्थमें जो ५०० श्लोक परिमाण अधिक है वह प्रायः 'उक्तं च' पद्योंका परिमाण है जो इस ग्रन्थमें दूसरे ग्रन्थोंसे उद्धृत किये गये हैं-१०० से अधिक गाथाएं तो तिलोयपण्णत्ती की ही हैं, २०० के करीब श्लोक भगवजिनसेनके श्रादिपुराणसे लिये गये हैं और शेष उद्धृत पद्य तिलोयसार (त्रिलोकसार ) और जम्बूद्वीप पण्णत्ती (जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति) आदि ग्रन्थोंके हैं । इस तरह इस ग्रन्थके भाषाके परिवर्तन और दूसरे ग्रन्थोंसे कुछ पद्योंके 'उक्तं च' रूपसे उद्धरणके सिवाय सिंहसूरकी प्रायः और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती । बहुत संभव है कि 'उक्तं च' रूपसे जो पद्योंका संग्रह पाया जाता है वह स्वयं सिंहसूर मुनिके द्वारा न किया गया हो बल्कि बादके किसी दूसरे ही विद्वानने अपने तथा दूसरों के विशेष उपयोगके लिए किया हो क्योंकि ऋषि सिंहसूर जब प्राकृत ग्रन्थका केवल संस्कृत अनुवाद करने बैठे-व्याख्यान नहीं तो यह . संभावना बहुत ही कम रह जाती है कि वे दूसरे प्राकृतादि ग्रंथोंसे तुलनादिके लिए कुछ वाक्योंको स्वयं उद्धृत करके उन्हें ग्रन्थका अंग बनायें । यदि किसी तरह यह उद्धरण-कार्य उनका ही सिद्ध किया जा सके तो कहना होगा कि वे विक्रमकी ११ वी शतीके अन्तमें अथवा उसके बाद हुए हैं; क्योंकि इसमें श्राचार्य नेमिचन्द्रके त्रिलोकसारकी गाथाएं भी 'उक्तं च त्रैलोक्यसारे' सूचक वाक्यके साथ पायी जाती हैं । इसलिए इस सारी परिस्थिति परसे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि तिलोयपण्णत्तीमें जिस लोकविभागका उल्लेख है वह सर्वनन्दीका प्राकृत लोकविभाग है जिसका उल्लेख हो नहीं किन्तु अनुवादित रूप संस्कृत लोकविभागमें पाया जाता है। चू कि उस लोकविभागका रचनाकाल शक संवत् ३८० (वि० सं० ४१५ ) है अतः तिलोयपण्णत्तीके रचयिता यतिवृषभ शक सं० ३८० के बाद हुए हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । अब देखना यह है कि कितने बाद हुए हैं ?
तिलोयपण्णत्तीमें अनेक काल गणनात्रों के आधारपर 'चतुमुख' नामके कल्किर की मृत्यु
१ आरा दि० जेन सिद्धान्तभवनकी प्रति और उसकी प्रतिलिपि वीरसेवामन्दिरको प्रति । २. कल्कि निःसंदेह एक ऐतिहासिक व्यक्ति हुआ है, इस बातको इतिहासज्ञोंने भी मान्य किया है. डा० के० बी० ४२
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