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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ
इन दोनों श्राचार्योंको 'क्षमाश्रमण' और महावाचक' भी लिखा है जो उनकी महत्ता के द्योतक हैं । इन दोनों आचार्योंके सिद्धान्त-विषयक उपदेशों में कहीं कहीं कुछ सूक्ष्म मतभेद भी रहा है, जो वीरसेनको उनके ग्रन्थों अथवा गुरुपरम्परासे ज्ञात था इसलिए उन्होंने घवला तथा जयधवला टीकाओं में उसका उल्लेख किया है । ऐसे जिस उपदेशको उन्होंने सर्वाचार्य सम्मत, अव्युच्छिन्न सम्प्रदायक्रम से चिरकालागत और शिष्य परम्परा में प्रचलित तथा प्रज्ञापित समझा है उसे 'पवाइज्जंत' 'पवाइजमाण' उपदेश बतलाया है और जो ऐसा नहीं उसे 'अपवाइज्जंत' अथवा 'अपवाइजमाण' नाम दिया है । उल्लिखित मतभेदों में आर्य नागहस्तिके अधिकांश उपदेश 'पवाइज्जत' और श्रार्यमक्षुके 'अपवाइयज्जंत' बतलाये गये हैं । इस तरह यतिवृषभ दोनोंका शिष्यत्व प्राप्त करनेके कारण उन सूक्ष्म मतभेदकी बातोंसे भी अवगत थे, यह सहज ही जाना जाता है । वीरसेनने यतिवृषभका महाप्रामाणिक प्राचार्य रूपसे उल्लेख किया है। एक प्रसंग पर राग-द्वेष-मोहके प्रभावको उनकी वचनप्रमाणतामें कारण बतलाया है और उनके चूर्णिसूत्रों को असत्यका विरोधी ठहराया है । इन सब बातों से आचार्य यतिनृषभका महत्त्व स्वतः ख्यापित हो जाता है ।
अब देखना यह है कि यतिवृषभ कब हुए हैं और कब उनकी यह तिलोयपण्णत्ती बनी है, जिसके वाक्योंको धवलादिकमें उद्धृत करते हुए अनेक स्थानों पर श्रीवीरसेनने उसे 'तिलोयपण्णत्तमुत्त' कहा है । यतिवृषभ गुरुत्रों में से यदि किसीका भी समय सुनिश्चित होता तो इस विषयका कितना काम निकल जाता, परन्तु उनका भी समय सुनिश्चित नहीं है । श्वेताम्बर पहावलियों में से 'कल्पसूत्र स्थविरावली' और 'पट्टावलीसारोद्धार' जैसी कितनी ही प्राचीन तथा प्रधान पट्टावलियों में तो श्रमं और नागहस्तीका नाम ही नहीं है, किसी किसी पट्टावलीमें एकका नाम है तो दूसरेका नहीं और जिनमें दोनोंका नाम है उनमें से कोई दोनों के मध्य में एक आचार्यका और कोई एकसे अधिक श्रचायका नामोल्लेख करती है । कोई कोई पट्टावली समयका निर्देश ही नहीं करती और जो
१ "कम्मट्ठदित्ति अणियोगद्दारेहि भण्णमाणे वे उबदेसा होति । जहण्णमुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मट्ठदि परूवणंत्ति नागहत्थि - खमासमणा भगति । अज्जमंखु खमासमणा पुर्ण कम्मट्ठिदि परूवणेत्ति भगति । एवं दोहि उवदेसेहि कम्मट्ठदि परूवणा कायव्वा ।" "एत्थ दुवै उवएसा महावाचयाणमज्जमंखुखवणाणमुवदेसेण लोग
पूरिंदे आउगसमाणं णामा- गोद-वेदणीयाणं दिसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयाणं णागहत्थिखत्रणाण मुत्र से लोगे पूरिंदे णामा- गोद-वेदणीयाण ठिदि संतकम्मं अंतोमुहुत्त पमाणं होई ।" - षट् खं० प्र० १ पृ० ५७ २ " सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसंपदाय - कमेणागच्छमार्णो जो सिस्स-परंपराए पवाइज्जदे सो पवाइज्जतोव एसोत्ति भण्णदे, अथवा अज्जमंखु-भयवंताणमुवएसो एत्थाऽपव्त्रा इज्जमानों णाम । णागहत्थि खमाणमुत्र सोपवाइज्जतोत्ति घेत्तव्यो " जयधन पृ० ४३
३ कुदो दे ? एदम्हादोचेव जइवसहाइरिय मुहकमल-विणिग्गय चुण्णिसुत्तादो । चुण्णिसुत्तमण्णहा किं ण होदि ? ण, रागोसमोहाभावेण पमाणत्तमुवगय- जइव सह वयणस्स असच्चत्तविरोहादो ।" जयधवला प्र० १, पृ० ४६ । ३२७