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वर्णी - श्रभिनन्दन ग्रन्थ
ग्रन्थके समय, सम्बन्धादिमें निश्चित रूपसे कुछ कहना सहज नहीं है । चूसूित्रोंसे मालूम होता है कि यतिवृषभ प्रौढ सूत्रकार थे । प्रस्तुत ग्रन्थ भी उनके जैनशास्त्रोंके विस्तृत अध्ययनको व्यक्त करता है । उनके सामने 'लोकविनिश्चय', 'संगाइणी ( संग्रहणी )' और 'लोकविभाग [ प्राकृत ]' जैसे कितने ही ऐसे प्राचीन ग्रन्थ भी मौजूद थे, जो आज उपलब्ध नहीं है और जिनका उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में उल्लेख किया है । उनका यह ग्रन्थ प्रायः प्राचीन ग्रन्थोंके आधारपर ही लिखा गया है, इसी से उन्होंने ग्रन्थकी पीठिका के अन्त में, ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा करते हुए, उसके विषयको 'आइरिय शुक्कमायादं' ( गा० ८६ ) बतलाया है और महाधिकारोंके संधिवाक्यों में प्रयुक्त हुए 'आइरिय परंपरागए' पदके द्वारा भी इसी बातको पुष्ट किया है, इस तरह यह घोषित किया है कि इस ग्रन्थका मूल विषय उनका स्वरुचि - विरचित नहीं है, किन्तु श्राचार्यपरम्परा के आधारपर है। रही उपलब्ध करणसूत्रों की बात; वे यदि इनके उस करणस्वरूप ग्रंथके ही अंग हैं, जिसकी अधिक संभावना है, तब तो कहना ही क्या है ? वे सब इनके उस विषयके पाण्डित्य, तथा बुद्धिकी प्रखरता के प्रबल परिचायक हैं । जयधवला के आदिमें मंगलाचरण करते हुए श्रीवीरसेनाचार्यने यतिवृषभका जो स्मरण किया है वह इस प्रकार है—
"जो जर्मखुसीस अंतेवासी वि नागहत्थिस्स ।
सो वित्ति सुत्त कत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥ ८ ॥"
इसमें कसायपाहुडकी जयधवला टीकाके मूलाधार वृत्ति ( चूर्णि ) - सूत्रों के कर्ता यतिवृषभको श्रार्यमक्षुका शिष्य और नागहस्तिका अन्तेवासी बतलाया है। इससे यतिवृषभके दो गुरुयोंके नाम सामने आते हैं, जिनके विषय में जयधवला परसे इतना और जाना जाता है कि श्री गुणधराचार्यने कसायपाहुड परनाम पेज दोसपाहुडका उपसंहार ( संक्षेप) करके जो सूत्रगाथाएं रची थीं वे इन दोनोंको श्राचार्य - परम्परा से प्राप्त हुई थीं और ये उनके सर्वाङ्ग अर्थ के ज्ञाता थे, इनसे समीचीन अर्थको सुनकर ही यतिवृषभने, प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित होकर उन सूत्र गाथाओं पर चूर्णिसूत्रों की रचना की " । ये दोनों जैनपरम्परा के प्राचीन श्राचार्यों में हैं और इन्हें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंने माना है - श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्रार्यमक्षुका श्रार्य मंगु नामसे उल्लेख किया है, मंग और मंक्षु एकार्थक हैं । धवला, जयधवला में
१ " पुणो तेण गुणहर भडारएण णाणपवाद-पंचम पुत्र दसमवत्थु तदिय कसा हुड-महण्णव पारएण गंधवोच्छेदभरण वच्छलपरवसि-कय- हियएण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहरश परिमाणं होतं असीदि सदमेत्तगाहाहिं उसंहारिदं । पुणो ताओ चेयमुत्तगाथाओ आइरिय परंपराए आगच्छमागाओ अज्जमंखु-नागहत्थीणं पत्ताओ । पुणो तेसिंदोहपि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहर मुहकमल विणिगयाणमत्थं सम्मं सोऊन जयिव सहभडारएण पवयणवच्छ लेग चुण्णित्तं कयं । ” – जयधवला
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