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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
इन तीन गाथाओंमें पहली ग्रंथका अन्त-मंगल है। इसमें ग्रंथकार यतिवृषभाचार्यने, 'जदिवसह' पदके द्वारा श्लेषरूपसे अपना नाम भी सूचित किया है । इसके द्वितीय और तृतीय चरण कुछ अशुद्ध जान पड़ते हैं । दूसरे चरणमें 'गुण' के अनन्तर 'हर' और होना चाहिये । देहलीकी प्रतिमें भी त्रुटित अंशके संकेत पूर्वक उसे हाशियेपर दिया है, जिससे वह उन गुणधराचार्यका भी वाचक हो जाता हैं जिनके 'कसायपाहुड' सिद्धान्तग्रंथपर यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना की है और 'श्रार्या गीति' के लक्षणानुरूप चौथे चरणके समान दूसरेमें २० मात्राए हो जाती हैं तीसरे चरणका पाठ पहले 'दळूण परिसवसह' प्रकट किया गया था। जो देहलीकी प्रतिमें भी पाया जाता है, और उसका संस्कृत रूप 'दृष्ट्वा परिषद् वृषभं' दिया था, जिसका अर्थ होता है-परिषदोंमें श्रेष्ट परिषद् सभा ] को देखकर । परंतु परिसका अर्थ कोषमें परिषद् नहीं मिलता किंतु स्पर्श उपलब्ध होता है, परिषद्का वाचक परिसा शब्द स्त्रीलिंग है। शायद यह देखकर अथवा किसी दूसरे अज्ञात कारणवश हालमें 'दठूणय रिसिवसहं' पाठ दिया है। जिसका अर्थ होता है-ऋषियोंमें श्रेष्ठ ऋषिको देखकर परन्तु 'जदिवसहं' को मौजूदगीमें रिसिवसहं यह कोई विशेषता नहीं रखता मुनि, यति, 'ऋषि शब्द प्रायः समान अर्थके वाचक हैं इसलिए वह व्यर्थ पड़ता है। पिछले पाठको लेकर उसके स्थान पर 'दटूण अरिस वसहं' पाठ भी सुझाया गया है और उसका अर्थ आर्ष ग्रथोंमें श्रेष्ठको देखकर किया है । परंतु अरिसका अर्थ कोशमें आर्ष उपलब्ध नहीं होता; किंतु अर्श । बवासीर ] नामका रोग विशेष पाया जाता है, आर्षके लिए आरिस शब्दका प्रयोग होता है । यदि अारिसका अर्थ आर्ष भी मान लिया जाय अथवा 'प' के स्थानपर कल्पना किये गये 'अ' के लोप पूर्वक इस चरणको सर्वत्र अनुपलब्ध 'दठूणारिसवसहं' ऐसा रूप देकर संधिके विश्लेषण द्वारा इसमें से प्रार्षका वाचक श्रारिस शब्द निकाल लिया जावे तो भी दट् ठूण पद सबसे अधिक खटकता है इस पदकी मौजूदगीमें गाथाके अर्थकी ठीक संगति नहीं बैठती-उसमें प्रयुक्त हुअा 'पणमह' [ प्रणाम करो] क्रियापद कुछ वाधा उत्पन्न करता है और अर्थ सुसंगत नहीं हो पाता । ग्रंथकारने यदि दठूय [ दृष्ट्वा ] पदको अपने विषयमें प्रयुक्त किया है तो दूसरा क्रियापद भी अपने ही विषयका होना चाहिये था अर्थात् आर्षवृषभ या ऋषभ, आदि को देखकर मैंने यह कार्य किया या मैं प्रणामादि अमुक कार्य करता हूं
१. इलेष रूपसे नाम-सूचनकी यह पद्धति अनेक ग्रन्थों में पायी जाती हैं; यथा-गोम्मटसार, नीतिवा क्यामृत और
प्रभा-चन्द्रादिके ग्रन्थ । २ जनहितैषी भाग १३, अंक १२, पृ० ५२८ पर सुहृद्वरं पं० नाथूराम प्रेमीका लेख । ३ पाइय-सद्दमहण्णव कोश । ४ जनसाहित्य और इतिहास पृ०६ । १ जैनसिद्धांतभास्कर भाग ११ कि० १ पृ० ८०। ६ पाइय-सद्दमहण्णव कोश ।
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