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राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्म प्रारम्भ होता था और एक सप्ताह तक चलता था। श्वेताम्बरोंमें यह चैत्र शुक्ला ८ मी से प्रारम्भ होता है । शत्रुञ्जय पर्वत पर यह पर्व अब भी बड़े समारोहसे मनाया जाता है क्यों कि उनकी मान्यतानुसार श्री ऋषभदेवके गणधर पुण्डरीकने पांच करोड़ अनुयायियोंके साथ इस तिथिको ही मुक्ति पायी थी। यह दोनों पर्व षष्ठ शतीके दक्षिणमें सुप्रचलित थे फलतः ये राष्ट्रकूट युगमें भी अवश्य बड़े उत्साहसे मनाये जाते हों गे क्यों कि जैनशास्त्र इनकी बिधि करता है और ये आज भी मनाये जाते हैं ।
राष्ट्रकूट युगके मन्दिर तो बहुत कुछ अंशोंमें वैदिक मन्दिर कलाकी प्रतिलिपि थे । भगवान महावीर की पूजनविधि वैसी ही व्यय-साध्यतथा विलासमय हो गयी थी जैसी कि विष्णु तथा शिवकः थी । शिलालेखोंमें भगवान महावीरके 'अङ्गभोग' तथा 'रङ्गभोग' के लिए दान देनेके उल्लेख मिलते हैं जैसा कि वैदिक देवताओं के लिए चलन था । यह सब भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वाङ्ग आकिंचन्य धर्मकी विकृत व्याख्या नहीं थी?
जैन मठोंमें भोजन तथा औषधियोंकी पूर्ण व्यवस्था रहती थी तथा धर्म शास्त्रके शिक्षण की भी पर्याप्त व्यवस्था थी?
अमोघवर्ष प्रथमका कोन्नूर शिलालेख तथा कर्कके सूरत ताम्रपत्र जैन धर्मायतनोंके लिए ही दिये गये थे । किन्तु दोनों लेखोंमें दानका उद्देश्य बलिचरु-दान, वैश्वदेव तथा अग्निहोत्र दिये हैं । ये सबके सब प्रधान वैदिक संस्कार हैं । आपाततः इनको करनेके लिए जैन मन्दिरोंको दिये गये दानको देख कर कोई भी व्यक्ति आश्चर्य में पड़ जाता है। संभव है कि राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्म तथा वैदिक धर्मके बीच श्राजकी अपेक्षा अधिकतर समता रही हो। अथवा राज्यके कार्यालयकी असावधानीके कारण दानके उक्त हेतु शिलालेखोंमें जोड़ दिये गये हैं । कोन्नूर शिलालेखमें ये हेतु इतने अयुक्त स्थान पर हैं कि मुझे दूसरी व्याख्या ही अधिक उपयुक्त जंचती है ।
राष्ट्रकूट युगका जैन साहित्य--
जैसा कि पहिले आचुका है अमोघवर्ष प्रथम, कृष्ण द्वितीय तथा इन्द्र तृयीय या तो जैनधर्मानुयायी थे अथवा जैनधर्म के प्रश्रय दाता थे। यही अवस्था उनके अधिकतर सामन्तोंकी भी थी। अतएव यदि इस युगमें जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ तो यह विशेष आश्चर्यकी बात नहीं है । ८ वीं शतीके मध्यमें हरिभद्रसूरी हुए हैं तथापि इनका प्रान्त अाज्ञात होनेसे इनकी कृतियोंका यहां विचार नहीं करें गे । स्वामी समन्तभद्र यद्यपि राष्ट्रकूट कालके बहुत पहिले हुए हैं तथापि स्याद्वादकी सर्वोत्तम व्याख्या तथा तत्का
१, भादों के अन्तमें पयूषण होता है । तथा चतुर्मासके अन्तमें कार्तिककी अष्टान्हिका पड़ती हैं। २. इनसाइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन तथा इथिकस् भा. ५, पृ. ८७८ । ३. जर्नल बो. बा. रो. ए. सो; भा. १० पृ- २३७ ।।
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