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वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ
है । इतना ही नहीं ये सच्चे जैनी थे । इसी कारण कतिपय विद्वानोंका मत है कि वाल्मीकि श्रादि प्राचार्यों ने दक्षिण देश वासियों को राक्षस आदि लिखा होगा। किन्तु यह तर्क निस्सार प्रतीत होता है क्योंकि छठी सातवीं शतीके पहिले धर्मभेद ऐसा उत्कट न था । एक व्यापक भारतीय धर्म था जिसमें जैन, बौद्ध तथा वैदिक धर्मके समस्त सिद्धान्त निहित थे । धार्मिक आस्थाके विषयमें लोग पूर्ण स्वतन्त्र तथा सहिष्णु थे । यही कारण है कि जैन, वैदिक तथा बौद्ध पुराण ग्रन्थों में दूसरे धर्मोका खण्डन मण्डन निन्दा, तो बहुत बड़ी बात है उल्लेख भी नहीं मिलता। सब अपने पूज्य पुरुषोंका वर्णन करते हैं । इतना हो नहीं वैदिक तथा जैन मान्यताके राम, आदि शलाका पुरुष एक ही हैं। यदि वाल्मीकिको राक्षस कह कर दाक्षणात्य जैनोंका अपमान ही करना होता तो वे जैनोंके पद्म (राम) को अपना नायक क्यों बताते अतः स्पष्ट है कि रावणादिके वंशोंके नाम ही राक्षस, अादि थे । वे संस्कृत प्रतिभाशाली पुरुष थे ।
धार्मिक द्वेष अभारतीय--
यद्यपि शशांक द्वारा बोधिवृक्षका काटना,बौद्धाचार्यों द्वारा शंकराचार्यको तेलकी उबलती कड़ाई में डाल देना तथा शंकराचार्य द्वारा जैन मन्दिर मूतियोंका अनवरत विनाश ऐसी घटनाओं के उल्लेख इधरके भारतीय इतिहासमें मिलते हैं तथापि यह निश्चित हैं कि ऐसी घटनाएं स्थानीय एवं व्यक्ति विशेष कृत थीं। भारतीय जनमत इतना संकुचित एवं पतित कभी नहीं हुआ है। कर्म, पुनर्जन्म, अादि सिद्धान्त सर्वमान्य रहे हैं । जनमें धार्मिक सहिष्णुता तथा सौहार्द ही रहा है। छठी शती ई० पू० के बाद भी श्रेणिक अथवा बिम्बसार, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, शक विजेता चन्द्रगुप्त का सब धर्मोंके ग्रन्थों में आत्मरूपसे वर्णन तथा हर्षका 'सर्व धर्मे समानत्वम्' श्रादि उक्त जनमतके ही पोषक हैं । क्या पद्मचरित रूपक मात्र है !--
यद्यपि पद्मचरितको भूतार्थ माननेवाले मनीषियोंका बाहुल्य है तथापि कतिपय ऐसे विद्वान् भी हैं जो पूरी कथाको सीता भूमिजा अथवा 'जुता खेत' अथवा शक्ति तथा राम (शुद्ध पूर्ण पुरुष) का रूपक ही मानते हैं । किन्तु वस्तु स्थिति इसके सर्वथा प्रतिकूल है । रामके वंशजों की उपस्थितिके अतिरिक्त भौगोलिक, वास्तुविद्या सम्बन्धी तथा अन्य साक्षी इतने अधिक हैं कि राम-सीताको कल्पना प्रसूत मानना बुद्धिके साथ बलात्कार ही हो गा । जैन पुराणों का रामवर्णन तो निर्णायक प्रमाण है कि रामादि ऐतिहासिक पुरुष थे क्योंकि माया (सीता) का परमब्रह्म (राम) से मिलन ऐसा वेदान्तकी मान्यताका समर्थन करनेके लिए वैज्ञानिक जैनाचार्य कभी इतना श्रम न करते। उनके लिए यह मिथ्यात्वका पोषण होता जिसे वे कदापि स्वीकार न करते। यही निष्कर्ष बौद्ध रामकथासे निकाला जा सकता है, यद्यपि उसमें सीताका रामकी बहिन रूपसे चित्रण है।
पघातभपात
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