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सार्द्धद्विसहस्राब्दिक - वोर शासन आजीविका के अनुसार उनका वर्ण नियत होता था । सबकी वैदेशिक वंशपरम्परा भी उनके नामके साथ जीवित रहती थी । इस प्रकार जैनाचायोंने अपनी समुदार संघव्यवस्था में सामाजिक वैषम्यको मेटनेका प्रयत्न किया था । सम्यक्त्व और जैनाचार ही श्रावकत्व पानेके लिए मुख्य योग्यताएं थीं ।
पांचवीं शतीमें श्री वज्रनन्दि श्राचार्य के तत्त्वावधान में मदुरामें एक “जैनसंघ” की स्थापना की गयी, जिसका उद्देश्य जैन विद्वानों और साहित्यकारोंकी कृतियोंका श्रादर और प्रचार
करना था ।
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सातवीं ठवीं शती से दक्षिण भारतमें भी जैनोंकी अवनति प्रारंभ हुई। इस समय तक चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, पाण्ड्य और कलचुरिवंशके नरेश जैनधर्मके भक्त थे । राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष गुरू प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनसेन थे । कहते हैं, उनके उपदेशसे सम्राट् अमोघवर्ष ऐसे प्रभावित हुए कि दिगम्बर मुनि हो गये । उनका रचा हुया नीतिग्रंथ सुभाषित 'रत्नमाला' विश्वसाहित्यका एक अमूल्य रत्न है । अप्परने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्म्माको शैव बनाया । पाण्ड्य नरेश सुन्दर भी शैव हुए । इन दोनों नरेशोंके जैनसे शैव होनेपर शैवधर्म प्रबल हुआ । चोलनरेश तो पहले से ही जैन विरुद्ध थे । परिणामतः जैन मंदिर और मूर्तियां नष्ट की गयीं और अनेक जैनी बलात् शैवधर्म में दीक्षित किये गये सुन्दरने बहुत ही जुल्म ढाया - जिन आठ हजार जैनोंने अपना धर्म नहीं छोड़ा उनको उसने शूली पर चढ़ा दिया । इन भाग्यशाली धर्मवीरोंकी मूर्तियां, अर्काटके लिवलूर देवालयकी दीवालोंपर अति हैं । इस समय में भी जनता के सहयोग से प्राचार्य सुदत्तने 'होय्सल' राजवंशकी स्थापना की थी । राजा, विष्णुवर्द्धन तक सब ही होय्सल नरेश जैनधर्मानुयायी रहे और उनके धर्मगुरू एवं राजगुरु होनेका सौभाग्य भी जैनाचार्यों को प्राप्त रहा । विष्णुवर्द्धनके सेनापतियोंमें दण्डाधिप 'अमृत' शूद्र थे। गंगर ज श्रादि सेनापति जैन ही थे । जैनाचारकी मान्यता प्रत्येक वर्ग और जाति में थी । जैन मंदिरोंकी दान परिपाटीको चलाने के लिए दातारोंने प्रत्येक मंदिरको दो-चार गावोंकी श्रामदनी दे रक्खी थी, जिसका उपभोग उस मंदिर के प्राचार्य करते थे । वैष्णवाचार्य श्री रामानुजने द्वारसमुद्र में प्रवेश किया और अपनी विद्यासे विवर्द्धनको प्रभावित किया । विष्णुभूप वैष्णव धर्मभक्त हो गये और बेलूर में उन्होंने नयनाभिरामकेशव मंदिर बनवाया । अपने धर्मको जनप्रिय बनाने के लिए रामानुजने भी अहिंसाको अपनाया और वैष्णव मठों में जैन मंदिरोंकी भांति चारों प्रकारके दान देनेकी व्यवस्था की । जैन प्रणालीको अपनाकर ही वह वैष्णव मतको फैलाने में सफल हुए ।
यद्यपि सम्राट् विष्णुवर्द्धन वैष्णव हो गये; फिर भी वह चोल और काकतीय नरेशोंके समान जैनोंको कष्ट नहीं पहुंचा सके । प्रत्युत जैनधर्मके प्रति उनकी नीति उदार रही। उन्होंने जैन मंदिरोंको भी दान दिये और जैन उत्सवों में भाग लिया । सम्राट्की इस नीतिका कारण सम्राज्ञी सान्तल देवी और सेनापति
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