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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
गङ्गराज थे । सम्राज्ञी और प्रधान सेनापति जीवनके अन्ततक जिनेन्द्रभक्त थे । इनके बाद जैन मुद्रांकित वैष्णव सम्प्रदाय ही बढ़ता गया ।
विजयनगर काल
विजयनगर साम्राज्यने विदेशी यवनों ( मुसलमानों ) से मोर्चा लेनेके लिए साम्प्रदायिक संघर्षका अन्त किया । जैन, शैव और वैष्णव-सबही कंधासे कंधा लगाकर विदेशियोंके आक्रमणको व्यर्थ करनेके लिए टूट पड़े । इस ऐक्यने वैदिक राज्यकी जड़ एक शतीके लिए और मजबूत बना दी । वैष्णव जोरदार थे । एकदफा वह जैनियोंसे उलझ गये। सम्राट बुक्करायने समझौता कराया। वैष्णवोंको जैनोंका सम्मान करनेके लिए वाध्य किया । यद्यपि विजयनगर साम्राज्यमें धर्म स्वातन्त्र्य था; तो भी जैनेतर धर्मोको अधिक सुविधा थी। सोलहवीं शतीमें पुनः जैन शासनको उन्नत होता हुआ पाते हैं । श्री विद्यानन्द आचार्य एक महावादी रूपमें प्रगट हुए थे। उन्होंने राजदरबारोंमें जाकर परवादियोंसे शास्त्रार्थ किये और उन्हे निग्रह स्थानको पहुंचाया। श्रीरंगपट्टम् के राजदरबार में श्री विद्यानन्दजीने ईसाई पादरियोंसे वाद किया और विजय पायी । फलतः वह राजवंश जैनी हो गया। ऐसे ही उन्होंने कई राजवंशोंको जैनधर्म में दीक्षित किया था। किन्तु लिंगायत और वैष्णवोंके अाक्रमणोंको जैन सहन नहीं कर सके। अनेक राजवंश जैनधर्म विमुख अथवा राजच्युत कर दिये गये । उधर मुसलमानोंके अाक्रमणोंने जैनोंके संगठनको छिन्न भिन्न कर दिया । इसका परिणाम जैनोंका ह्रास हुआ।
दक्षिण में मुसलमानोंके पैर जम जाने पर जैनोंने मुसलमान शासकोंको भी प्रभावित किया । सुल्तान हैदरअलीसे भी उन्होंने श्रवणबेलगोलके लिए पुराने गांव प्राप्त किथे थे२ ।
उत्तरभारत--
उत्तर भारतमें जैनधर्मको स्थिति विचित्र रही है। ग्रामीण जनतामें भी जैनधर्मकी श्रद्धा गुप्तकाल तक गहरी थी। जैन मन्दिर भारतियोंके लिए शिक्षा और संस्कृतिक केन्द्र थे। सम्राट हर्षने जिस समय प्रयागमें विद्वत्सम्मेलन बुलाया था तो उसमें भाग लेनेके लिए कई सौ जैन विद्वान भी पहुंचे थे। गुप्तराजवंशके कई सम्राट भी जैनधर्मसे प्रभावित थे। चीनी यांत्री फाह्यान् और हुएनसांगके यात्रा वर्णनसे स्पष्ट है कि मध्यभारतमें जैनधर्मकी अहिंसाका काफी प्रभाव था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा में एकमात्र दिगम्बर जैनधर्म ही काफी समय तक था। गुप्तवंशके राजपुरुषोंमें श्री हरिगुप्त एवं
१. राइस कृत मैसूरएण्ड कुर्ग, पृ० २०९ । २. स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म, भा० २ पृ० १३२ । ३. संक्षिप्त जैन इतिहास, भा० २ खंड २ पृ० १०९ ।
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