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स्वामी समन्तभद्र तथा पाटलिपुत्र श्री डी० जी० महाजन
'पूर्व पाटलिपुत्र मध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटंक बहुभट विद्योत्कटं संघटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥'
श्रवण बेलगोलाके शिलालेखका यह श्लोक प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रके नामको पाटलिपुत्रसे सम्बद्ध करता है । कतिपय विद्वानोंका मत है कि स्वामीने मगधके पाटलिपुत्रकी यात्राकी थी। श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार भी श्रवणवेलगोलकी ऐतिहासिकताके कारण उक्त विचारसे सहमत हैं । किन्तु सन् '४५–'४६ की भा० इतिहास परिषद्के निमित्तसे दक्षिण जाते समय कडलोर जानेका अवसर मिला । किसी समय यह स्थान 'पाटलिपुत्र' नामसे ख्यात था यह सुनते ही विचार आया कि उक्त शिलालेखका पाटलिपुत्र मगधकी राजधानी थी अथवा दक्षिण भारतका यह प्राचीन स्थान ?
विचारना यह है कि स्वामी पाटलिपुत्र क्यों गये हों गे ? क्या उस समय यह नगर शिक्षा तथा संस्कृतिका केन्द्र था ? क्या मगधकी राजधानी होनेके कारण यह नगर सुसमृद्ध था ? चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उसके प्रधान वंशधरोंके कालमें पाटलिपुत्र राजनगरीके वैभव तथा गुणोंसे समलंकृत था। ई० पू० दूसरी शतीमें ( १८४ ई० पू० ) मौर्य साम्राज्यको समाप्त करके शुगवंशके संस्थापक पुष्यमित्र तथा उसके पुत्र अग्निमित्रके हाथों आते ही युद्ध में ध्वस्त पाटलिपुत्र राजकृपासे भी वञ्चित कर दिया गया था। शुंगोंकी राजधानी विदिशा ( भेलसा) चली गयी थी जिसके खण्डहर वेसनगरमें आज भी विद्यमान हैं । शुंगोंकी दूसरी राजधानी उज्जैनी थी ।
हस्तिगुम्फा शिलालेख द्वारा सुविख्यात कलिंगराज एल खारवेलने ई०पू० प्रथम शतीमें मगध
१. शि. सं. ५४ ( प्राचीन ) ६७ ( नवीन ) पू. सं. १०६० में लिखित 'मल्लिषेण प्रशस्ति' २. आप्तमीमांसा पृ. ४ तथा स्वामी समन्तभद्र (पं. जुगल किशोर मुख्तार ) ३. टी. एल शाहका 'प्राचीन भारत' भा. ४ पृ. ११३-४।
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