________________
वर्णी - श्रभिनन्दन ग्रन्थ
तार्किक प्रभाचन्द्र श्राचार्यने अपने दीर्घकाय प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में जैन प्रमाण शास्त्र से सम्बन्धित समस्त विषयोंकी विस्तृत और व्यवस्थित विवेचना की है । तथा ग्यारवीं शतीके विद्वान् अभ यदेवने सिद्धसेन दिवाकरकृत सन्मतितर्ककी टीकाके व्याजसे समस्त दार्शनिक वादोंका संग्रह किया है । बारहवीं शती विद्वान् वादी देवराजसूरिका स्याद्वादरत्नाकर भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा कलिकाल सर्वज्ञ श्राचार्य हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा भी जैन न्यायकी एक अनूठी रचना है ।
उक्त रचनाएं नव्यन्यायकी शैलीसे एक दम स्पृष्ट हैं। हां, विमलदासकी सप्तभंगतरङ्गिणी और वाचक यशोविजयजी द्वारा लिखित अनेकान्तव्यवस्था, शास्त्रवार्तासमुच्चय तथा अष्टसहस्रीकी टीका अवश्य ही नव्यन्यायकी शैली से लिखित प्रतीत होती हैं ।
व्याकरण
पूज्यपाद (वि० छटीं श० ) का 'जैननेन्द्र व्याकरण' सर्व प्रथम जैन व्याकरण ग्रन्थ कमाना जाता है । महाकवि धनञ्जय ( ८ वीं श० ) ने इसे 'पश्चिम रत्न " बतलाया है ? इस ग्रन्थ पुर निम्न लिखित चार टीकाएं उपलब्ध हैं :
:–
( १ ) अभयनन्दिकृत महावृत्ति, (२) प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर, (३) श्राचार्य श्रुतकीर्तिकृत पञ्चस्तु प्रक्रिया तथा ( ४ ) पं० महाचन्द्रकृत लघुजैनेन्द्र ।
इसमें एक भी वार्तिक
प्रस्तुत जैनेन्द्रव्याकरणके दो प्रकारके सूत्रपाठ पाये जाते हैं । प्रथम सूत्र - पाठके दर्शन उपरि लिखित चार टीका- ग्रन्थों में होते हैं और दूसरे सूत्रपाठ के शब्दार्णव- चन्द्रिका' तथा शब्दार्णवप्रक्रिया' में । पहले पाठमें ३००० सूत्र हैं । यह सूत्रपाठ पाणिनीयकी सूत्र - पद्धति के समान है । इसे सर्वाङ्ग सम्पन्न बनाने की दृष्टिसे महावृत्तिमें अनेक वार्तिक और उपसंख्यानोंका निवेश किया गया है। दूसरे सूत्र - पाठ में ३७०० सूत्र हैं। पहले सूत्र पाठकी अपेक्षा इसमें ७०० सूत्र अधिक हैं और इसी कारण आदिका उपयोग नहीं हुआ है । इस संशोधित और परिवर्द्धित संस्करणका नाम शाब्दार्णव' है । इसके कर्ता गुणनन्दि (वि० १० श० ) श्राचार्य हैं । शब्दार्णव पर भी दो टीकाएं उपलब्ध हैं : - ( १ ) शब्दार्णव चन्द्रिका और ( २ ) शब्दार्णवप्रक्रिया । शब्दार्णवचन्द्रिका सोमदेव मुनिने वि० सं० १२६२ में लिखकर समाप्त की है और शब्दावप्रक्रियाकार भी बारहवीं शतीके चारूकीर्ति पण्डिताचार्य अनुमानित किये गये हैं ।
१. " प्रमाणमकलकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
धनञ्जयको काव्यं रत्नत्रयमपश्चिम ॥" धनन्जय नाममाला,
२. जैन साहित्य और इतिहास ( पं० नाथूराम प्रेमी ) का 'देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक निबन्ध |
३१२