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संस्कृत साहित्यके विकासमें जैनविद्वानका सहयोग विशाल टीकाएं लिखी हैं । श्राचार्य प्रभाचन्द्र [७८० -१०६५ ई.] ने इस पर बारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामक विस्तृत टीका लिखी है। बारहवीं शतीके लघु अनन्तवीर्यने इसी ग्रन्थ पर एक 'प्रमेय रत्नमाला' नामकी टीका लिखी है। इसकी रचना-शैली इतनी विशद और प्राञ्जल है
और इसमें चर्चित किया गया प्रमेय इतने महत्वका है कि प्राचार्य हेमचन्द्रने अनेक स्थलों पर अपनी प्रमाण-मीमांसामें इसका शब्दशः और अर्थशः अनुकरण किया है। लघु अनन्तवीर्यने तो माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखको अकलङ्कके वचनरूपी समुद्रके मन्थनसे उद्भूत 'न्यायविद्यामृत'' बतलाया है।
___ उपयुक्त दो मौलिकग्रन्थोंके अतिरिक्त अन्य प्रमुख न्यायग्रन्थोंका परिचय देना भी यहां अप्रासंगिक न होगा । अनेकान्त वादको व्यवस्थित करनेका सर्व प्रथम श्रेय स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शती ई०) और सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन महत्वपूर्ण कृतियां हैं । प्राप्तमीमांसामें एकान्त वादियोंके मन्तव्योंकी गम्भीर
आलोचना करते हुए प्राप्तकी मीमांसा की गयी है और युक्तियों के साथ स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यवस्था की गयी है। इसके ऊपर भट्टाकलङ्क ( ७२०-७८० ई०) का अष्टशती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानन्दि ( ९ वीं० श० ई० ) का "अष्टसहस्री" नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी ( देवागमवृत्ति) नामक टीका प्राप्य हैं । युकत्यनुशासनमें जैन शासनकी निर्दोषता सयुक्तिक सिद्ध की गयी है। इसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर द्वारा अपनी स्तुति प्रधान बत्तीसियोंमें और महत्वपूर्ण सन्मतितर्क भाष्य में बहुत ही स्पष्ट रीतिसे तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादोंका स्याद्वाद सिद्धान्तके साथ किया गया समन्वय दिखलायी देता है।
___ भट्टाकलङ्कदेव जैनन्यायके प्रस्थापक माने जाते हैं और इनके पश्चाद्भावी समस्त जैन तार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्याय मार्गका अनुकरण करते हुए हो दृष्टिगोचर होते हैं। इनकी अष्ठशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लधीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाएं हैं । इनकी समस्त रचनाएं जटिल और दुर्बोध हैं । परन्तु वे इतनी गम्भीर हैं कि उनमें 'गागर में सागर' की तरह पदे पदे जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान भरा पड़ा है।'
आठवीं शतीके विद्वान आचार्य हरिभद्रकी अनेकान्तजयपताका तथा षट्दर्शनसमुच्चय मूल्यवान और सारपूर्ण कृतियां हैं । ईसाकी नवीं शतीके प्रकाण्ड प्राचार्य विद्यानन्दि के अष्टसहस्त्री, प्राप्तपरीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अादि रचनाओंमें भी एक विशाल किन्तु आलोचना पूर्ण अद्भुत-विचार-राशि। बिखरी हुई दिखलायी देती है। इनकी प्रमाणपरीक्षा नामक रचनामें विभिन्न प्रामाणिक मान्यताओंकी अालोचना की गयी है और अकलङ्क-सम्मत प्रमाणोंका सयुक्तिक समर्थन किया गया है। सुप्रसिद्ध
१, अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्दधे येन धीमता । न्याय विद्यामृतं तस्मै नमो 'माणिक्यनन्दिने ।।" 'प्रभेयरत्नमाला' पृ० २.