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साद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन
समय उत्साही युवकों और नेताओंने "श्र० भारतीय दिगम्बर जैन परिषद'' की स्थापना की। १९२३ में परिषदका जन्म हुश्रा और तबसे वह कतिपय उन्हीं सुधारोंका प्रचार करनेका प्रयत्न कर रहा है, जिनका प्रतिपादन पंडित-प्रवर स्व० गोपालदासजी वरैयाने सबसे पहले किया था।
महासभाकी सुसुप्ति तथा परिषद्के अाधुनिक जोशको देख कर ही दि० जैनोंमें 'भा० दि० जैनसंघ' का उदय हुआ । प्रारंभमें संघ द्वारा विधर्मियोंसे सफल शास्त्रार्थ किये गये। जिनसे काफी धर्म प्रभावना हुई । अब कुछ वर्षों से समयके साथ संघने अपनी नीति बदल दी है। अब उसके द्वारा समाजमें सर्वदा एवं विशेष उत्सवों पर धर्मोपदेशक भेजकर प्रचार कार्य होता है । जैनधर्मके कुछ ग्रन्थ भी संघने प्रकाशन किये हैं । किन्तु इतनेसे लुप्त दि० जैनसंघको पुनः अस्तित्वमें नहीं लाया जा सकता।
पुरुषों के साथ महिलाओंमें श्राविकाश्रमों द्वारा जो जागृति हुई, उसका श्रेय स्व० श्री मगनबाईजी, श्री कंकुबाईजी और श्री ललिता बाईजीके साथ विदुषीरत्न पं० चन्दाबाईजीको भी प्राप्त है । उनके उद्योगसे ही 'भा० दि• जैन महिला परिषद' का जन्म हुअा; जिसके द्वारा जैनमहिलाओं में कुछ जागृति फैलायी जा रही है । महिलोद्धारके लिए भी बहुत कुछ करना शेष है।
सांस्कृतिक उद्धार और इतिहासान्वेषणके लिए जैनियोंने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है। एकमात्र पत्र 'जैनसिद्धान्तभास्कर' श्रारासे प्रगट हो रहा है। यद्यपि ग्रन्थोद्धारके लिए 'श्री माणिकचंद्र ग्रन्थमाला', 'श्री लक्ष्मीचंद्र ग्रन्थमाला', 'श्री चवरेसीरीज', प्रभृति अनेक संस्थाएं कार्य कर रही हैं; किन्तु प्रकाशनके साथ उनके द्वारा जनसाहित्यके लोकव्यापी प्रसारका उद्योग नहीं हो रहा है । श्वेताम्बर समाज लोकमें अपने साहित्यका प्रसार करनेमें अग्रसर है । श्वेताम्बरीय संस्थात्रों 'सिंधी जैन ग्रन्थ-माला'
आदि का रूप सार्वजनिक है । काशीकी भारतीय ज्ञानपीठने अपना दृष्टिकोण उक्त संस्था परसे विशाल तो बनाया है; परन्तु अभी तक उसके द्वारा कोई ठोस कार्य नहीं हुआ है। लोकमें अहिंसा-संस्कृतिका प्रसार करनेके लिए जैनियोंको मिलकर कोई कदम उठाना चाहिये । अन्यथा जैन युवक ही जैनत्वसे बहक रहे हैं।
श्वेताम्वर और स्थानकवासी जैनसमाजोंमें भी अपनी अपनी सभाएं सामाजिक व्यवस्थाके लिए हैं । किन्तु उनके समाजका नेतृत्त्व उनके प्राचार्यों और साधुओंके हाथमें है। साधुसंघमें यद्यपि जाति-पांतिका ध्यान नहीं रक्खा जाता है, प्रत्येक जातिका मुमुक्षु साधु हो जाता है; परन्तु श्रावक-संघ तो दि जैनोंकी भांति श्वेताम्बरोंमें भी बंटा हुश्रा है और जैनसंघकी एकताको मिटाये हुए हैं । इस प्रकार गत ढाई हजार वर्षों की यह रूप रेखा इस कल्पके अवसर्पिणीत्वको ही सिद्ध करती है।
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