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सार्द्धं द्विसहस्राब्दिक वीर शासन तो मानव जाति है । उस एक मानव जातिको टुकड़ों में बांटने का काम तो मानवका है। ऋषभदेवने समष्टिका ध्यान रखकर मानवोंके वर्ग किये किन्तु मुस्लिम कालमें ( १३ वीं, १४वीं शती में ) मानवके व्यक्तिगत स्वार्थने उसको छोटी छोटी उपजातियोंमें बांट दिया । तदुपरान्त उनमें जड़ता श्रा गयी और अपनी ही उपजातिमें विवाह करनेके लिए लोग बाध्य हुए । भट्टारकगण शिथिलाचारमें फंस गये; उन्होंने श्राद्ध, तर्पण, आदि वैदिक क्रियायोंको जैनियोंमें प्रचलित किया और ब्राह्मण-पुरोहितोंकी तरह ही श्रावकोंसे खूब रुपया वसूल किया। श्री टोडरमल्ल दिने भट्टारकीय शिथिलताका भंडाफोड़ किया और शास्त्रोंकी भाषाटीका करके धर्मज्ञानका प्रचार सर्व साधारण में किया । फलतः जैनी अपने विवेक से काम लेने के योग्य बन सके ।
इस समय सुधारकी एक जबरदस्त लहर भारतमें आयी । प्रत्येक सम्प्रदायमें जड़ मूर्तिपूजा और जाति-पांतकी कट्टरताका विरोध किया गया। नये-नये सम्प्रदाय बने, तारणपंथ और स्थानकवासी पंथ मूर्तिपूजा का अंत और सामाजिक उदारताको लेकर अवतरित हुए । मध्यवर्ती सुधारकोंने मूर्तिपूजाके समर्थन में युक्ति और विवेक से काम लिया। दीवान श्रमरचंद और मुनि ब्रह्मगुलालकी कृतियां यही बताती हैं। जयपुर, आगरा, आदि स्थान सुधारकोंके केन्द्र थे । इन सुधारकोंने अंधविश्वास और धर्ममूढ़ता को जैनों में पनपने नहीं दिया। भट्टारकीय- प्रथाको गहरा धक्का लगा, जिससे वह मरणासन्न हो गयी । किन्तु ये सब संगठित संस्थाके रूपमें नहीं थे। इसलिए धीरे धीरे जैसे जैसे पंडित- गृहस्थों का अभाव होता गया और पंचायतों में पक्षपात और विवेक घुसता गया वैसे वैसे यह दोनों ही निष्प्रभ हो गये । श्राज पंचायतें हैं ही नहीं और हैं भी तो शक्तिहीन ।
इस कालमें पुरोहितोंने जैनोंके प्रति घोर विष उगला । क्योंकि जैनी ब्राह्मण-पुरोहितोंको अपने मांगलिक कार्यों में नहीं बुलाते थे और न दान-दक्षिणा देते थे, वे दयनीय स्थितिमें थे । प्रान्त प्रान्त जैनों का यदि अध्ययन किया जाय तो प्रायः इसी तरह की स्थिति दीख पड़ेगी । मुस्लिम कालके प्रारंभ में जहां जैनी इतने उदार थे कि एक वेश्या तक को श्राविका बना सकते थे, वहां इस कालमें वह इतने संकुचित हुए कि सन्मार्ग से उन्मुख हुए अपने जैनी भाई या बहनको भी संभालकर घर में न ला सके। उनमें जातिगत पारस्परिक स्पृद्धा भी हो चली थी; जिसने जातिवाचक जैन मंदिरोंको जन्म दिया । मन्दिर और भगवान् भी अग्रवाल, खंडेलवाल, पद्मावतीपुरवाल, आदि हो गये । इस मिथ्या धारणाका जहर अभी तक जैनों में से गया नहीं है । इस दयनीय स्थिति से विधर्मी प्रचारकों ने मनमाना लाभ उठाया । अनेक जैनी ईसाई बनाये गये तो बहुत-से मुसलमान हो गये ।
आधानिक युग
जैन ही नहीं, जैनेतर वैदिक सम्प्रदायों पर भी ऐसे ही आक्रमण हो रहे थे पर किसी में
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