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सार्द्धद्विसहस्राब्दिक - वीर शासन देवगुप्तके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने श्वेताम्बर जैनाचार्य से साधुपदकी दीक्षा ली थी । गुप्तसम्राटोंके सेनापति भी जैन थे । भेलसाके निकट उदयगिरिमें गुप्त सेनापतिने जैन गुफामंदिर बनवाकर बड़ा उत्सव किया था | जैनधर्म के साथ ही जैनकलाकी भी पर्याप्त उन्नति हुई थी । गुप्तकालीन जैनकला के नमूने सारे उत्तर भारतमें फैले पड़े हैं। गुप्तकालमें ही देवगढ़ के अधिकांश दिव्य मंदिरों और मूर्तियोंका निर्माण हुआ था ।
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बङ्गाल और कलिंग में भी इस समय तक दिगम्बर जैनधर्मका प्रचार था । पहाड़पुर में प्रसिद्ध निर्ग्रन्थ ( दि० जैन ) संघ विद्यमान था । उसके अध्यक्ष आचार्य गुहनन्दि संभवतः नन्दिसंघ के गुरू थे । उस सयय पु ंड्रवर्धन नगर में ( ४७८ ई० ) ब्राह्मणनाथशर्मा और उसकी भार्या रामी रहते थे । वर्द्धन युक्त ( जिलाधीश ) और नगर सभा ( City Council ) अध्यक्ष ( नगर श्रेष्ठी ) के पास पहुंचे और तब प्रचलित रीतिके अनुसार उन्होंने कुछ भूमि प्राप्त करनेके लिए तीन दीनार राजकोष में जमा करा दिये । उस भूमिको इस प्रकार मोल लेकर उन्होंने वटजोहालिके जैन विहार में, जिसके अध्यक्ष आचार्य गुहनन्दि थे, एक विश्रामगृह बनाने के लिए एवं जिनपूजा के लिए चन्दन, धूप, गंध, दीप, पुष्प, आदि चढ़ानेके लिए भेंट कर दी । उस समय ब्राह्मणादि चारों ही वर्णों के लोग थे । कलिङ्गमें तो जैनधर्म राष्ट्रधर्म बना हुआ था । कलिंग नृप गुहशिव दिगम्बर जैनधर्मका श्रमुयायी था । उसीके समय से कलिंगमें जैनधर्मके विरुद्ध षड्यन्त्र होने लगा था । फलतः कुछ जैनी कलिंग छोड़कर पटनामें जा रहे थे४ । कामरूपके दक्षिण में समतट और पूर्वीय बंगाल में भी दि० जैन असंख्य थे । कुमारीपर्वत ( खंडगिरि उदयगिरि) पर बारहवीं शती तक के जैन लेख मिलते हैं और बंगाल-बिहार में इससे भी बादकी निर्मित हुई जिनमूर्तियां यत्र तत्र बिखरी हुई मिलती हैं, जो इस बात की साक्षी है कि मुसलमानों के श्रागमन-समय तक वहां जैनधर्म प्रचलित था। जिनके वंशधर सराकों (श्रावकों ) की अब भी बड़ी संख्या है।
मध्यभारत में हैहय और कलचूरि वंशके राजा भी जैनधर्म से प्रभावित थे । राजपूताना, गुजरात और कर्णाटक शासनाधिकारी चालुक्य, राष्ट्रकूट (राठौर), सोलंकी आदि राजवंश भी जैनधर्मके संरक्षक थे । उनमें से कई राजाओंोंने जैनाचारका पालन भी किया था । सम्राट् कुमारपालने अपने शौर्य और दानका सिक्का चारों दिशाओं में जमा रखा था। इन राजाओं के अधिकांश राजकर्मचारी जैन ही थे ।
सिंध प्रान्तमें भी जैन श्रमण अपने मतका प्रचार कर रहे थे । मुसलमानों को पहले पहले श्रमणोपासक शासकोंसे ही मोर्चा लेना पड़ा था मुसलमानों के पैर भारत में मुहम्मद गोरीके आक्रमणके
१. जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया, पृ० २१० २१३ ।
२. इण्डियन हिस्टोरीकल क्वार्टरली, भा२ ७ पृ० ४४१ व बृहत्कथाकोष (सिंधी ग्र ं० ), भूमिका ।
३. वी० सी० लॉ वॉल्यूम, ( पूना १९४६), भा० २ पृ० २५२-२५३ ।
४. दाठावंसो अ० २ तथा दिगम्बरत्व और दि० मुनि, पृ १२५ ।
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