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सार्द्धद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन तदवत्थ है कि जैनधर्मका अस्तित्व भारतके बाहर नहीं रहा है इस भ्रान्तिको पनपने देनेका दायित्व स्वयं जैनियों पर है । यदि वे जागरुक होते और अज्ञान तिमिरको मेंटनेकी भावनासे अनुप्राणित होते तो आज विद्वज्जगतकी जैनधर्मके विषयमें कुछ और ही धारणा होती !
जैनधर्मका प्रचार तीर्थंकर भगवानने समस्त आर्यखंडमें किया था । भरतक्षेत्रके अन्तर्गत आर्यखंडका जो विस्तार शास्त्रोंमें बतलाया गया है, उसको देखते हुए वर्तमानमें उपलब्ध जगत उसीके अन्तर्गत सिद्ध होता है । कविवर वृन्दावनदास, स्व० पं० गोपालदासजी वरैया प्रभृति विद्वानोंने भी इस मतका पोषण किया है । स्व. पंडिताचार्यजीका कहना था कि करीब डेढ़ हजार वर्ष पहले दक्षिण भारतमें बहुतसे जैनी अरब देशसे आकर बसे थे । तिरुमलय पर्वतके शिलालेखमें एलिनीया यवनिका, राजराजपावगत और विदुगदलगिय पेरूमल नामक जैनधर्मानुयायी राजाओंका उल्लेख हैं, जिन्होंने उस पर्वत पर मूर्तियां आदि स्थापित की थीं । इनमें पहले राजा एलिनयवनिकाके नामसे ऐसा लगता है कि वह विदेशी थे । साथही अन्तिम राजा पेरूमलके विषयमें कहा गया है कि सन् ८२५ ई० में वह मक्का गये थे । अतः इन राजाओंका सम्बन्ध अरबदेशसे स्पष्ट है। मौर्यसम्राट् सम्प्रतिने अरब और ईरानमें जैनमुनियोंका विहार कराया था। श्री जिनसेनाचार्यने भ० महावीरके विहारसे पवित्र हुए देशोंमें यवनश्रुति, काथतोय, सूरुभीरु, तार्ण-कार्ण, आदि देश भी गिने हैं;" जो निस्सन्देह भारतबाह्य देश हैं । यवनश्रुति पारस्य अथवा यूनानका बोधक है। क्वाथतोय देश ‘लाल सागर' का तटवर्ती देश अबीसीनिया, अरब, इथ्यूपिया आदि हो सकते है, जहां एक समय श्रमण साधुओंका विहार होता था । सूरुभीरु संभवतः 'सुरभि' नामक देशका बोधक है, जो मध्यएशियामें क्षीरसागर के निकट अक्षस (oxus ) नदीसे उत्तरकी अोर स्थित था। तार्ण 'तूरान' और 'कार्ण' काफिरस्तान हो सकते हैं । भरत द्विग्विजय अथवा प्रद्युम्नकुमारके भ्रमणवर्ती देशोंका यदि अन्वेषण करके पता लगाया जाय, तो उपलब्ध सारे लोकमें जैनधर्मका अस्तित्त्व सिद्ध होगा। इस विषयमें एक तुच्छ प्रयास हमने किया है। कोई कोई पाश्चात्य विद्वान् भी अब इस दिशामें अन्वेषण करनेके लिए अग्रसर हुए हैं। श्री सिल्वालेवीने जैनधर्मका प्रभाव सुमात्रा अादि प्रदेशोंमें बताया था। हालमें संभवतः 'सामराइच्च
१ 'भगवान् पाश्र्वनाथ' पृ० १५६ । २ ऐशियाटिक रिसचेंज, भा० ९ पृ० २८३-२८४ । ३ मद्रास-मैसूरके प्राचीन जैन स्मारक, पृ०७९-९० व ११९ । ४ हरिवंशपुराण (५० गजाधरलाल ) टीका पृ० १८ । ५ 'भ० पार्श्वनाथ' पृ० १७३-२०२ ! ६ इंडियन हिस्टोरीकल क्वारटली, भा० २ पृ. २९ । ७ 'भ० पार्श्वनाथ' में नागवंशजोंका परिचयादि । ८ विश्वभारती पत्रिका, वैशाख-आसाढ़, २००१ पृ० ११७
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