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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
थे । जैसे विनीत ( कोंगणी वर्मन ), राचमल्ल ( ई० स० ९७७), परमर्दिदेव और उसके उत्तराधिकारी ( ग्यारहवीं शताब्दिका अंत और बारवीं का प्रारंभ ), इत्यादि । सुप्रसिद्ध चामुंडराय जिसने श्रवणबेलगोला
गोस्वामीकी अद्भुत प्रतिमा स्थापित की थी, यह दूसरे मारसिंहका प्रधानमंत्री था । इस मारसिंहने गुरू अजितसेनकी उपस्थिति में जैनधर्मकी क्रियानुसार मरण किया था अर्थात् समाधिमरण किया था ।
श्री फ्लीट के कथनानुसार कदम्ब वंशीय राजा भी जैन थे । काकुत्स्थवर्म और देववर्मा आदिने जैन सम्प्रदाय के भिन्न-भिन्न संघों को बड़ी-बड़ी भेटें दी थीं ।
पश्चिमके सोलंकी ( चालुक्य ) राजा यद्यपि वैष्णव थे, परन्तु वे निरन्तर दान और भेंटों के द्वारा जैनियोंको संतुष्ट करते रहते थे । दक्षिण के महाराष्ट्र प्रान्त में जैनधर्म सामान्य प्रजाका धर्म गिना जाता था ! मलखेड़ के ( मान्य खेट ) राष्ट्रकूट ( राठौर ) राजाओं के श्राश्रयसे जैनधर्मने; विशेषतया दिगम्बर सम्प्रदायने बहुत उन्नति की थी । नवमी शताब्दिमें दिगम्बर सम्प्रदायको अनेक राजाओं का श्राश्रय मिला था । राजा अमोघ वर्ष ( ई० सं० ८१४ -८७७) ने तो अपनी सहायता द्वारा इस सम्प्रदायका एक बड़े भारी रक्षक के समान प्रचार एवं प्रसार किया था, और सम्भवतः उसीने प्रश्नोत्तर रत्नमालाकी रचना की थी । सौनदत्तीके रहवंशी राजा पहले राष्ट्रकूटोंके करद सामन्त थे, परन्तु पीछे से स्वतंत्र हो गये थे । वे जैनधर्म के अनुयायी थे । उनके किये हुए दानोंका उल्लेख ईस्वीसन् ८७५ से १२२९ तकके लेखोंमें मिलता है । सान्तर नामके अधिकारियोंका एक और वंश मैसूरके अन्तर्गत् हुम्मच में रहता था । ये भी जैनी थे और उनके धर्मगुरु जैनाचार्य थे ।
बारहवीं और तेरहवीं शताब्दिमें होय्सल नामक वंशके राजाओंोंने मैसूर प्रान्त में अपने अधिकारकी अति वृद्धि की थी। पहले ये कलचुरी वंशके करद राजा थे, परन्तु जब उक्त वंशका पतन हुआ, तब उनके उत्तराधिकारी हो गये । इस वंशके सबसे प्राचीन और प्रमाणभूत राजा विनयादित्य और उसका उत्तराधिकारी श्रोरियंग ये दोनों तीर्थंकरों के भक्त थे । इस वंशके प्रख्यात राजा विट्टिग अथवा विल्टिदेवको रामानुजाचार्यने विष्णुका भक्त बनाया था और इससे उसका नाम विष्णुवर्धन प्रसिद्ध हुआ था। उसकी राजधानी द्वारसमुद्रमें जिसे कि अब हलेबीडु कहते हैं, थी । इसके सिवाय गंगराज, मरीयन, भारत, आदि मंत्रियोंका भी यहां श्राश्रय मिला था । उन्होंने उन सब मन्दिरोंका फिरसे जीर्णोद्धार कराया था, जिन्हें कि चोल नामके श्राक्रमण कारियोंने नष्ट कर दिया था और उन्हें बड़ी बड़ी जागीरें लगा दी थीं । जैन शिलालेखों में १५ वीं शताब्दि के साल्ववंशीय राजाओं का भी उल्लेख मिलता है, ये जैनधर्मके अनुयायी थे ।
यह लेख यद्यपि छोटा है, परन्तु मेरी समझ में यह बतलाने के लिए काफ़ी है कि जैन शिलालेखों में कितनी ऐतिहासिक बातोंका उल्लेख है । इन लेखोंका और जैनियोंके व्यवहारिक साहित्यका नियमित अभ्यास भारतवर्षके इतिहासका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए बहुत ही उपयोगी होगा ।
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