________________
वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
इन शिला-शासनों तथा ताम्रलेखोंके प्रारंभमें बहुधा जैनाचार्यों तथा धर्म गुरुत्रोंकी विस्तीर्ण पट्टावलियां रहती हैं । उदाहरणके लिए शत्रुञ्जय तीर्थके आदीश्वर भगवानके मंदिरका शिलालेख लीजिए, जो कि वि० संवत् १६५० ( ईस्वी सन् १५९३ ) का है। उसमें तपागच्छकी पट्टावली इस प्रकार दी हुई है -तपागच्छके स्थापक श्री जगचन्द्र ( वि० सं० १२८५), श्रानन्द-विमल (वि० सं० १५८२), विजयदान सूरि, हरिविजय सूरि (वि० सं० १६५० ) और विजयसेन सूरि । इसी प्रकारसे दूसरा शिलालेख अणहिल्लपाटणका एपिग्राफिश्रा इंडियाकी पहली जिल्दके ३१९-३२४ पृष्ठोंमें छपा है। उसमें खरतरगच्छके उद्योतनसू रिसे लेकर जिनसिंह सूरि तकके पहले ४५ श्राचार्योंकी पावली दी है। मथुराके लेख
मथुरामें डा० फुहररने कनिष्क और उसके पश्चाद्वर्ती इंडो-सिथियन राजाओंके अनेक शिलालेखोंका पता लगाया था और प्रो० व्युल्हरने एफिग्राफिया इंडियाकी पहली दूसरी जिल्दमें उनका बहुत ही
आश्चर्यजनक वृत्तान्त प्रकाशित किया था । इसी विषयपर सन् १९०४ में इंडियन एण्टीक्वेरीके ३३वें भागमें मो० सुडरने एक और लेख लिखा था और उक्त लेखोंका संशोधन तथा परिवर्तन प्रगट किया था। मथुराके लेख जैन धर्मके प्राचीन इतिहासके लिए बहुत ही उपयोगी हैं। क्योंकि वे कल्पसूत्रकी स्थविरावलीका समर्थन करते हैं और प्राचीनकालके भिन्न-भिन्न गोंका, उनके मुख्य मुख्य विभागों, कुलों
और शाखाओं सहित परिचय देते हैं। जैसे 'कोटिक गण' स्थानीय कुल और वाढीशाखा, ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा, इत्यादिके उल्लेख ।
जैन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रोंसे इस बातका भी पता लगता है कि, एक देशसे जैनी दूसरे देश में कब फैले तथा उनका अधिकाधिक प्रसार कब हुआ। ईस्वी सन्से २४२ वर्ष पहले महाराजा अशोक अपने आठवें श्राज्ञापत्रमें जो कि स्तम्भपर खुदा हुआ है, उनका ( जैनियोंका ) 'निर्ग्रन्थ' नामसे उल्लेख करते हैं । ईस्वी सन्से पहले दूसरी शताब्दिमें उनका उड़ीसाके उदयगिरि नामक गुफाओंमें 'अरहन्त' के नाम से परिचय मिलता है और मथुरामें भी (कनिष्क हविष्कके समयमें) वे बहुत सद्धिशाली थे; जहां कि दानोंके उल्लेख करने वाले तथा अमुक भवन अमुकको दिया गया यह बतलाने वाले अनेक जैन लेखोंका पता लगा है। श्रवणबेलगोला--
__ईस्वी सन्के प्रारंभके एक शिलालेखमें गिरनार पर्वतका सबसे पहले उल्लेख मिला है, जिससे यह मालूम होता है कि, उस समय जैनी भारतके वायव्यमें भी फैल चुके थे। इसी प्रकार आचार्य श्री भद्रबाहुके अधिपत्यमें वे दक्षिणमें भी पहुंचे थे और वहां श्रवण वेलगोलामें उन्होंने एक प्रसिद्ध मन्दिरकी
१. देखो एपिंग्राफि इण्डिया भाग २, पृष्ठ ५०-५९ ।
२४४