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पौराणिक जैन इतिहास
यह भी स्वाभाविक है कि मानवके उत्तरोत्तर विकासकी गति बढ़ने पर सबसे पहिले उसे जीवनोपयोगी वस्तुओं और विशेषकर भोज्य पदार्थों के प्रभाव क्षेत्रोंकी सीमा निर्धारित करनी पड़ी हो गी । क्षेत्र विभाजनने वर्ग तथा कुलोंकी सृष्टि की हो गो। जनबल ही समाज या कुलकी शक्ति होती है अतः संस्कृत न होने पर भी मानवने शिशुपालनकी चिन्ता की हो गी । बर्द्धमान जनबलने मानवको साहसिक बनाकर समुद्रके उस पार तथा पर्वतशिखरपर पहुंचा दिया । जीवन जटिल हुआ, सामाजिक व्यवस्थाएं बनीं, विवाह अाया, कृषि तथा शिल्पोंका आविर्भाव हुआ । तथा इसके साथ ही प्रारम्भिक समाजका अन्त तथा संस्कृत समाज ( कर्मभूमि ) का उदय हुआ। आधुनिक अनुमान--
आदिम समाजके संस्कृत होनेकी प्रक्रियाकी अनेक श्रेणियां आधुनिक अन्वेषकोंने निश्चित की हैं। इन्हें श्री निलससन तथा थोमसनने पाषाण, तांबा तथा लौह-युग नाम दिये हैं । यह वर्गीकरण एशिया तथा यूरपके विकासक्रममें तो ठीक बैठता है किन्तु पोलीनेशिया, मध्य-दक्षिण अफ्रिका, पेरू तथा मैक्सिकोके अतिरिक्त अमरीकाके लिए उपयुक्त नहीं है । इन देशोंमें पाषाणसे लौह-युग आया है, ताम्रयुग नहीं हुआ है । अतः यह वर्गीकरण सार्वभौम नहीं है ।
असंस्कृत ( आष्ट्रेलिया तथा ब्राजीलके श्रादिम निवासी ), वन्य ( रोमन साहित्यमें वर्णित जर्मनिक लोग ) तथा संस्कृत ( ईसासे पूर्वके ग्रीक तथा रोमन लोग ) के भेदसे किया गया वर्गीकरण अधिक संगत है । इसमें वृद्धिकी धारा भी स्वाभाविक है कयों कि मूल मूढ़ मानवसे पुरुष शिकारी तथा फलफूल संचयकर्ता होता है, इसके बाद निश्चित कृषक बन जाता है । जैन वर्गीकरण सबसे आगे--
किन्तु यह सब अनुमान मानवके इतिहासको वर्ग-युग तक ही ले जाते हैं। उससे आगे नहीं सोच सकते । किन्तु जैन मान्यता मानवताके इतिहासको दूरातिदूर उस प्रारम्भिक युगमें ले जाती है जिसकी कल्पना करना भी कठिन है । संभवतः यह उस युगसे प्रारम्भ करती है जब मानव पशु समूहके साथ रहता था अतः समाज विज्ञानके पंडितोंका कर्त्तव्य हो जाता है कि वे इस वर्णनको व्यर्थ और काल्पनिक कहनेके पहले इसका उचित तथा पूर्ण विचार करें । तीर्थङ्कर--
अन्तिम कुलकर श्री नाभिरायको अपनी रानी मरूदेवीसे श्रीऋषभदेव नामका पुत्र हुआ था । वास्तवमें यही पुत्र इस कर्मभूमिका आदि व्यवस्थापक था। फलतः इनका पुरुदेव, आदिनाथ, श्रादीश्वर, आदि नामों द्वारा पुराणोंने उल्लेख किया है। यह इतने महान एवं साधु शासक थे कि
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