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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
मनुष्यसे हीन जीव हैं जो मरकर स्वर्ग में जन्म लेते हैं । समस्त जैन महापुरुष मनुष्य ही थे। यही मानव तामय दृष्टि जैनधर्म तथा विश्वके समस्त धर्म और सविशेष वैदिक धर्ममें महान् भेद कर देती है । फलतः जैन चक्रवर्ती भी नर थे, नारायणके अवतार नहीं । ये विश्व विजयी सम्राट नर थे जिन्होंने विश्वके छहों खण्डों पर शासन किया तथा अन्तमें जैनो दीक्षा लेकर आत्म सिद्धि भी की । भरत, सगर, मघवा, सनत्कु. मार, शान्तिनाथ, कुंथनाथ, अरनाथ, सभूम, पद्म, महापद्म, हरिषेण, जय तथा ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती हए हैं। इनमें भरत तथा सगर प्रधान हैं। वैदिक साहित्यने भी भरतकी भरि भरि प्रशंसा की है। ऋषि वाल्मीकिने दाशरथि भरतको आदर्श भाई बताया है । पाण्डवों तथा कौरवोंके पूर्व पुरुष भरतकी कीर्ति वेदव्यासने गायी है। तीसरे जड़ भरतकी यशोगाथा भी विशाल है। हमारे देशको भारतवर्ष नाम देनेवाले भरतभी सुविदित हैं । कवियोंके कुलगुरु नाट्यशास्रके रचयिता भरतको कौन नहीं जानता । जैन पुराणोंके भरतभी प्राचार, राजनीति तथा नृत्यशास्त्रके पण्डित थे। उनके नामानुसार ही हमारा देश भरतखण्ड कहलाया । ये भ० ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र थे, पिताके मुनि हो जाने पर राज्य सिंहासन पर बैठे थे । इन्हे 'चक्र-रत्न' की प्राप्ति हुई थी जो चक्रवर्ती के सिवा नारायण प्रतिनारायणको भी सिद्ध होता है। इस वृत्ताकार सुन्दर (सुदर्शन) चक्रपर सहस्र देवता पहरा देते हैं। चलानेवालेके सम्बन्धियोंके सिवा यह शस्त्र सबको निश्चित मार देता है। इसके द्वारा नारायण, प्रति-नारायणको मारता है । किन्तु नारायण पर चलाये जानेपर वह उसकी परिक्रमा करके उनके हाथमें चला जाता है। भरत तथा बाहुबलि
भरत चक्रवर्तीने इस चक्रद्वारा पूरे विश्वको विजय किया था। विजय यात्रासे लौटनेपर चक्र राजधानीके द्वार पर रुक गया । नैमित्तिकोंने बताया अापके वैमातुर भाई बाहुबलिने आपको सम्राट नहीं माना है । इसपर दोनों भाइयोंकी सेनाएं लड़नेको प्रस्तुत हो गयीं। मंत्रियोंने नरसंहार बचानेके लिए 'द्वन्द्व' की सम्मति दी। बाहबलिने भरतको दृष्टि, जल तथा मल्लयद्ध में परास्त किया। कपित भरतने चक्र चला दिया जो बन्धु बाहुबलिका कुछ भी न कर सका । बाहुबलिको वैराग्य हुअा और वे दीक्षा लेकर मुनि हो गये। दशमी शतीमें चामुण्डराय द्वारा निर्मित श्रवणबेलगोला की ५७ फी० उन्नत विशाल वीरता, वैराग्य तथा करुणा बरसाने वाली गोम्मटेश बाहुबलि मूर्ति अाजभी इस समस्त कथानकको मानस चक्षुत्रों पर अंकित कर देती है।
इसके बाद भरतका चक्रवर्ती-अभिषेक हुअा। यह सुयोग्य परम धार्मिक शासक थे । इन्होंने मानव-समाजकी व्यवस्थाको सुदृढ़ बनाया था। पठन-पाठन, पूजन-ध्यान को प्रोत्साहन देने के लिए इन्होंने चौथा ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया था । अपने पूज्य पिताकी निर्वाणभूमि कैलाश पर्वतपर बहत्तर जिनमन्दिर बनवाये थे । अन्तमें इन्होंने दीक्षा ली और अन्तर्मुहूर्तमें कैवल्य प्राप्त किया था।
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