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पौराणिक जैन ईतिहास प्रतिफल हैं तथापि मानवताकी स्पष्ट छाया जितनी जैनधर्ममें है उतनी अन्यत्र सुलभ नहीं। यह सत्य है कि वैदिक धर्ममें भी राम, कृष्ण, आदि विशिष्ट मानव पूज्य हैं, तथापि इन धर्मोमें दैवी पूज्य पुरुषोंकी भी कमी नहीं है । इतना ही नहीं राम, कृष्ण, आदि भी परमात्माके अवतार होनेके ही कारण पूज्य हैं । बौद्धधर्म भी यद्यपि जगत्कर्ता नहीं मानता और मनुष्य बुद्ध की ही पूजा करता है तथापि बौद्धोंका विश्वास था कि निर्वाण प्राप्त बुद्ध अथवा वोधिसत्त्व भक्तोंकी निर्वाण यात्रामें अथवा तदर्थ साधनामें सहायक होते हैं । ऐसी मान्यताको विशुद्ध 'दृष्टवाद' नहीं कहा जा सकता । निर्दोष एवं सबल दृष्ट (कर्म) वाद किसी भी रहस्यमय अदृष्ट कारणको नहीं मानता । शतियों पहिले हुए व्यक्तिको अपने अनुयायियोंके अात्मिक विकासमें सहायक मानना जैन साधक स्वमेव जैनधर्म-विद्रोह है क्योंकि यह स्वभाव ( प्रकृति ) विरुद्ध है। विवेकी साधक स्वयमेव जैनधर्मकी अशरण-अनुप्रेक्षा पर आकृष्ट हो जाता है और अात्मसिद्धिके मार्ग पर बढ़ता जाता है | "हे आत्मन ? संसारमें तुम दुःख परम्परा हो, कोई तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके तुम ही अपनी रक्षा कर सकते हो, सन्मार्गपर
आते ही पाप-शोक स्वयं नष्ट हो जायगे" श्रा०सोमदेवकी यह मानसी वृत्ति शुद्ध साधक (जैनी) की हो जाती है । वह तीर्थङ्करको भी दया या कृपा स्वीकार नहीं कर सकता । यही शुद्ध जैनदृष्टि है । जैनपूजाका आदर्श--
तब तीर्थंकर श्रादर्श क्यों ? और उनकी मूर्तिकी पूजा अात्मसिद्धिमें साधक क्यों ? क्यों कि तीर्थकर संसारसे परे हैं, न वे किसीके भलेमें और न बुरेमें तब उनकी पूजासे प्रयोजन ? सत्य है,साधक-वाधक, रूपसे उनकी पूजा नहीं है । जैनमूर्ति पूजाका उद्देश्य तो मानवके चर्म तथा ज्ञान-नेत्रोंके सामने सांसारिक त्यागके विशुद्ध एवं महानतम आदर्शको रखना है। जिसके द्वारा आत्माका श्रात्यन्तिक विशुद्ध विकास होता है । अर्थात् तुम भी मेरे समान तीर्थकर हो सकते हो यही जैनपूजाका सार है। जैन मूतिपूजा अवश्य है पर यह 'मूर्तिमान् (आदर्श ) की पूजा' है । फलतः जैनी अपने पूजन-ध्यान पुरुषार्थ द्वारा आत्मसिद्धि करता है पूज्य ( अादर्श ) तीर्थंकरोंकी कृपासे नहीं । "जब चित्त बहिमुख एवं चंचल हो तब मनुष्यको पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना चाहिये। इससे मोह तथा भोगेच्छा समाप्त होती हैं और चित्त शान्त हो जाता है । पर्याप्त अभ्यास द्वारा जब चित्त शान्त स्वस्थ हो जाय तब शुद्ध, ज्ञानी एवं शाश्वत आत्म स्वरूपका ध्यान करे ।" श्री ब्रह्मदेवका यह आदर्श ही जैन पूजन-ध्यानका आदर्श है ।
चक्रवर्ती- जैनदृष्टिमें मनुष्यगति सर्वश्रेष्ट है। यदि जैनधर्म ‘सेश्वर' है तो मानव तीर्थङ्कर ही उसके ईश्वर हैं, वे मनुष्य रूपमें ईश्वर नहीं; अपितु ईश्वर होने वाले मनुष्य हैं । अर्थात् जैनधर्म मानवधर्म है । उसके कुलकर वैदिक मनुोंके समान परमब्रह्मकी सन्तान न होकर साधारणमनुष्य थे, जैनदेव भी वे मनुष्य और
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