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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री महावीर--
___ अन्तिम अर्हत तीर्थस्वामी महावीरकी ऐतिहासिकताके विषयमें अब शंका नहीं की जाती है । उनके जीवनसे सम्बद्ध अधिकांश स्थानोंका भी निश्चय हो गया है। बौद्ध साहित्यमें उनके उल्लेख भरे पड़े हैं । इनके पिता यद्यपि सम्राट नहीं थे तथापि वैशाली के निकटस्थ कुण्डनपुर जनतंत्रके प्रधान थे । विदेहके जनतंत्रके प्रधान राजा चेटक उनकी माता त्रिशलाके पिता थे। इनकी मौसी चेलना सम्राट बिम्बसार ( मगध ) की रानी थी। दूसरी मौसी कोशलाधिप प्रसेनजितसे ब्याही थी। अतः भगवान महावीर उस समयके प्रधान राजवंशोंके निकटतम सम्बन्धी थे। जैन वर्षका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदाके उषाकालसे होता है। हरिवंश (जैन) पुराण तथा अन्य साक्षियोंके बलपर स्पष्ट है कि दीपावलिका प्रारम्भ भगवान वीरके निर्वाणसे हुअा है । गुजरात, अादि कितने ही भारतके प्रान्तोंमें नूतन वर्षका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदासे होता है । यह जैनधर्मके प्रसार एवं प्रभावके द्योतक हैं । नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्तीके 'त्रिलोकसार के अनुसार वीर-निर्वाणके ६०५ वर्ष बाद शक राजाने शासन किया । अब शक सं० १८७० है अर्थात् भ० वीरने १८७०+६०५=२४७५ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया अथवा वै २४७५-१९४८-५२७ ई० पूर्व मोक्ष गये थे। ‘ार्यविद्या सुधाकर'के मतसे वीर प्रभु वि० सं० से ४७७ वर्ष पूर्व मुक्त हुए। अब वि० सं० २००५ है अतः वीर निर्वाणका वर्ष २००५+४७०=२५७५-१९४८= ५२७ ई० पू० ही हो गा। दिगम्बर सरस्वती गच्छकी पट्टावलियोंसे भी इसकी पुष्टि होती है। यतः वर्द्धमान प्रभु ७२ वर्ष जीवित रहे अतः वे ५९९ ई० पू० में उत्पन्न हुए, ५६९ ई० पू० में दीक्षा ली, ५५७ ई० पू० में सर्वज्ञ हुए और ५२७ ई० पू० में मुक्त हुए । जैनदर्शन तथा तीर्थंकर
तीर्थकरोंके जीवन के अनुसंगसे जैनदर्शनका रुचिकर अध्ययन हो सकता है। प्रत्येक तीर्थकर साधारण जीवसे उन्नति करते करते पूर्ण पुरुष ( केवली ) बनता है । जैनधर्ममें उसका वही स्थान है जो अन्य धर्मोंमें ईश्वरका है। किन्तु वह जगत्कर्ता नहीं है केवल आदर्श है। जगत्कर्तृत्वका निषेध यदि नास्तिकता है तो जैनधर्म अवश्य नास्तिक कहा जा सकता है, किन्तु पुनर्जन्म, कर्म तथा लोकान्तरको माननेके कारण न वह (जैनधर्म) नास्तिक है और न शून्यवादी अथवा भोगवादी ही है । ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका उसमें किया गया खण्डन' अत्यन्त वैज्ञानिक है । यह कठोर आचरणके भामण्डलसे दैदीप्यमान विधायक भारतीय मानवता-वाद है। भारतके समस्त दर्शन अात्म साक्षात्कारकी उत्कट अभिलाषाके
१-नव्य न्याय और वैशेषिकको छोड़कर समस्त भारतीय दर्शनोंने भी ईश्वरके कर्तृत्वका निषेध किया है। ये दोनों भी उसे केवल निर्माता मानते हैं । प्राचीन न्यायन कर्म और फलमें सम्बन्ध बनाये रखने के लिए उसे माना है, प्राण अथवा पञ्च भूतोंका कर्ता नहीं । इसके अतिरिक्त शेष वैदिक दर्शनों तथा बौद्ध दर्शनने भी ईश्घरका स्पष्ट निषेध किया है।
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