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ग्वालियरका तोमर वंश और उसकी कला
श्री हरिहरनिवास द्विवेदी, एम० ए०, एलएल० बी०
प्रभातकालीन तारागणोंके सामान मध्यकालमें भारतीय राजवंश मस्लिम-सौभाग्य-सूर्यकी किरणोंके प्रवाहमें विलीन होते गये । देशके विभिन्न भागों में अनेक छोटे छोटे राज्य स्थापित होगये थे। इनमें से अनेक वंशोंका इतिहास उनकी वीरताके कारण तो महत्त्व रखता ही है परन्तु आज भी उनसे निर्माण की हुई कलाकृतियां मिलती हैं जो उनकी ओर हमारी जिज्ञासा जाग्रत कर देती हैं । ग्वालियर-गदपर स्थित मध्यकालीन स्थापत्य कलाके रस मानमंदिरको देखकर तथा विशालकाय एवं प्रशान्त मुख-मुद्रा-मयी तीर्थंकरोंकी चरण-चौकियोंपर उल्लिखित अभिलेखोंको देखकर यह जाननेकी इच्छा प्राकृतिक रूपसे उत्पन्न होती है कि इन कृतियोंके निर्माता कौन थे ? तोमर राज्यका उदय
ग्वालियरपर सन् १३७५ से प्रायः सवा सौ वर्षतक तोमरोंका राज्य रहा। इस वंशके वीरसिंह, उद्धरणदेव, विक्रमदेव, गणपतिदेव, ड्रगरेन्द्रसिंह, कीर्तिसिंह और मानसिंहके नाम अद्वितीय वीरों एवं कलाके आश्रयदाताओंके रूपमें आज भी प्रसिद्ध हैं । तैमूर लंगके अाक्रमणके समय भारतकी मुस्लिम सत्ता डांवाडोल हो गयी थी। इसी समय वीरसिंह तोमरने ग्वालियर-गढ़पर अधिकार कर लिया और मानसिंह तोमर तक इनका प्रतापी वंश स्वतंत्र राजाके रूपमें राज्य करता रहा । महाराज मानसिंहकी मृत्युके पश्चात् तोमरोंकी स्वतंत्र सत्ता तिरोहित हो गयी। मानसिंहके पुत्र विक्रमासिंह लोदियों के अधीन हो गये और वे लोदियोंकी अोरसे पानीपतकी युद्ध भूमिमें लड़े भी थे । डूंगरेन्द्रदेव--
तोमरवंशके राज्यकी स्थापना होते ही उसे पड़ोसी सुल्तानोंसे लोहा लेना पड़ा और यह युद्ध अनवरत रूपसे चलता ही रहा । उद्धरणदेव, विक्रमदेव, गणपतिदेवके राज्यकालकी कोई घटना ज्ञात नहीं, परन्तु डूगरेन्द्रदेवको मालवाका हुशंगशाह और दिल्लीका मुबारकशाह सतत कष्ट देते रहे थे। हुशंगशाहसे पीछा छुड़ानेको उसे मुबारिकशाहकी सहायता लेनी पड़ी थी और उसे कर भी देना पड़ा था। गरेन्द्रसिंह अपने बाहुबल और राजनीतिक बुद्धिके द्वारा अपनी स्वतंत्र सत्ताको कायम रख सके
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