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वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ
मूर्ति की स्थापना बड़ी धूम धाम से करायी । इस बिंब प्रतिष्ठोत्सव में विजयनगरका तत्कालीन शासक राजा देवराज भी सम्मिलित हुआ था ।'
sus भैरवराय [ ई० सन् १५०५ ] यह बड़ा प्रतापी राजा था। अपने राज्यकाल में स्वतंत्र होनेके लिए इसने फिर एक बार प्रयत्न किया था । पर इसमें इसे सफलता नहीं मिलो । कारकलकी 'चतुर्मुख - बसदि ' का निर्माण इसी ने कराया था। यह मंदिर दर्शनीय है और कला की दृष्टि से अपना वैशिष्ट्य रखता है । इसे इम्मडि भैरवरायने शा० शक १५०८, ई० सन् १५८६ में बनवाया था । इसका मूल नाम 'त्रिभुवनतिलक- चैत्यालय' है । यह सारा मंदिर शिलानिर्मित है। इसके चारों तरफ एक-एक द्वार है, इसलिए यह चतुर्मुख-बसदि कहलाता है । प्रत्येक द्वारमें अर, मल्लि एवं मुनिसुव्र तीर्थंकरों को तीन प्रतिमाए विराजमान हैं। पश्चिम तरफ २४ तीर्थंकरोंकी २४ मूर्तियां भी स्थापित हैं । इनके अतिरिक्त दोनों मण्डपोंमें भी कई जिनबिंब हैं । दक्षिण और वाम भाग में वर्तमान ब्रह्म यक्ष और पद्मावती यक्षणीकी मूर्तियां बड़ी चित्ताकर्षक हैं। मंदिर के खंभों एवं दीवालों में खुदे हुए पुष्प, लताएं और भिन्न-भिन्न चित्र इम्मडि भैरवके कला प्रेमको व्यक्त कर रहे हैं । दन्तोक्ति है कि इसे बारह - मंजिला बनवाने की उसकी लालसा थी। पर वृद्धावस्था के कारण अपना संकल्प पूर्ण नहीं कर सका इस बातकी पुष्टि मंदिरकी बनावट भी होती है। भैरवरायने मंदिरके लिए 'तोलार' ग्राम दानमें दे दिया था; जैसा कि पश्चिम दिशा के दरवाजे में स्थित शिलालेख से प्रमाणित होता है। इस मंदिर निर्माणका इतिहास बड़ा ही रोचक है ।
त्रिभुवन तिलक चैत्यालय-
सन् १५८४ में एक रोज शृङ्गेरी शंकराचार्य मठ के तत्कालीन पीठाधीश श्री नरसिंह भारती कारकलके मार्गसे कहीं जा रहे थे। जब यह बात भैरवरायको मालूम हुई तो उन्होंने सम्मान पूर्वक उनसे भेंट की और नवनिर्मित, प्रतिष्ठित, सुन्दर जिनमंदिरमें उन्हें ठहराया तथा स्वामीजीको अपनी राजधानीमें कुछ समय तक ठहरनेके लिए श्राग्रह किया। इस पर भारतीजीने उत्तर दिया कि जहां पर अपने नित्य कर्मानुष्ठानके लिए देवमंदिर नहीं है, वहां पर मैं नहीं ठहर सकता। इस उत्तरसे राजाको मार्मिक चोट लगी । फलस्वरूप जिस नूतन निर्मित जिन-मंदिर में भारतीजी ठहराये गये थे उसीमें राजाने तत्-क्षण 'शेषशायी अनन्तेश्वर विष्णु भगवान् की एक सुन्दर मूर्ति स्थापित करा दी। यह मंदिर कारकल में आज भी मौजूद है | कलाको दृष्टिसे उक्त मूर्ति बहुत सुन्दर है । यह समाचार जब गुरू ललितकीर्तिजीको ज्ञात हुआ, तो राजा भैरवरायपर वे बहुत रुष्ट हुए। दूसरे रोज भैरवराय प्रतिदिनकी तरह जब ललितकीर्तिजीके दर्शनको गये और उन्हें नमस्कार करने लगे तब संतुष्ट भट्टारकजीने खड़ाऊं सहित पैरोंसे उन्हें ठुकरा दिया । साथ ही साथ कहने लगे कि तुम जैनधर्मद्रोही हो । राजाने हाथ जोड़कर नम्रता से प्रार्थना की
१ - विशेष के लिये जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ५, किरण २ देखें ।
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