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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
दसेमि तं पि ससिणं वसुहाबइराणं थंभेमि तस्स वि रइस्स रहं णहद्ध ।
आणेमि जक्ख सुर सिद्ध गणं गणाश्रो।
तं णत्थि भूमिबलए मह जंण मज्झ ।। अधिक संभावना यही है कि ये सब योग्यताएं भैरवानन्दको प्राप्त विशेष सिद्धियां रही हो । तथा साधारणतया प्रत्येक कौल धर्मानुयायीमें नहीं पायी जाती रही हो । देवसेनाचार्यक वर्णन--
श्री देवसेनाचार्यने अपने दर्शनसार' को वि० सं० ९९० अर्थात् ९३३ ई० में समाप्त किया था । फलतः वे राजशेखरके समकालीन थे। अपने 'भावसंग्रहरे में उन्होंने कतिपय अजैन दर्शनों तथा धर्मों की समीक्षा की है। इसी प्रसंगसे इन्होंने भी कौलधर्मके विषयमें कुछ विस्तृत उल्लेख किया है । इन्होंने 'कौल' तथा 'कविल'3 पंथोंको एक दूसरे में मिला दिया है तथा प्राकृत और अपभ्रंशके पद्योंको एक साथ रख दिया है, इस पर से मेरे मनमें विचार आता है कि देवसेनने अपने समयके प्रचलित तथा सुविदित मन्तव्योंको केवल एकत्रित कर दिया है। उन्होंने न तो कौल धर्मके सिद्धान्तग्रन्थोंका ही अध्ययन किया है और न इस धर्मके अनुयायियोंके सम्पर्कमें आकर स्वयं उन्हें जाननेका प्रयत्न किया है। उनके अधिकांश उद्गार राजशेखरके उद्धरणोंके अत्यन्त समान हैं तथा निम्नलिखित सूचनाएं राजशेखरकी अपेक्षा अधिक हैं-'नारी शिष्योंके साथ मनमाना कामाचार कौलधर्मके अनुकुल है, इन्द्रियभोग बहुत महत्त्वपूर्ण है, मदिरापान तथा मांस भक्षणके साथ, साथ जीव-हिंसा भी इस धर्मके अनुकूल है । इस धर्ममें आराध्य देव वासनासे अाक्रान्त है तथा 'माया' एवं 'शून्य' नाम लेकर पूजा जाता है, गुरु लोग इन्द्रिय-भोगोंमें लीन रहते हैं, स्त्रीकी वय, पद, प्रतिष्ठा, आदिका कोई विचार नहीं है । वह केवल भोग विलासका साधन है । 'भाव संग्रह' के कुछ संशोधित पद्य निम्न प्रकार हैं
"रंडा मुंडा चंडी, सुंडी दिक्खिदा धम्मदारा सीसा कंता कामासत्ता कामिया सा वियारा। मज्ज मांसं मिटुं भक्खं भक्खियं जहि सोक्खं कवले धम्मे विसवे रम्भे तं जि हो मोक्ख सोक्खं ॥
रत्ता मत्ता कामासत्ता दूसिया धम्म मग्गा १. 'भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट की पत्रिका प्र. १५ भा. ३. (पूना १९३४ ) २. माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई ( १९२१)। ३. कौलधर्मका विस्तृत वर्णन मेरे सांख्य विभागमें दिया है। ४. भा० सं० पृ० १८२-८५ ।
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