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पुरातत्त्वकी शोध जैनों का कर्तव्य
खोजके लिए पर्याप्त क्षेत्र
खोजके लिए बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा है । आजकल जैनमतावलम्बी अधिकतर राजपूताना और पश्चिमी भारतवर्ष में रहते हैं । परन्तु हमेशा यह बात नहीं रही है । प्राचीन कालमें महावीर स्वामीका धर्म श्राजकली पेक्षा बहुत दूर दूर तक फैला हुआ था । एक उदाहरण लीजिये - जैनधर्मके अनुयायी पटना के उत्तर वैशाली में और पूर्व बंगालमें श्राजकल बहुत कम हैं; परन्तु ईसाकी सातवीं शतीमें इन स्थानों में उनकी संख्या बहुत ज्यादा थी। मैंने इस बातके बहुतसे प्रमाण अपनी आखोंसे देखे हैं कि बुंदेलखंड में मध्यकाल में और विशेष कर ग्यारहवीं और बारहवीं शतियोंमें जैनधर्मकी विजय पताका खूब फहरा रही थी। इस देशमें ऐसे स्थानों पर जैनमूर्तियों का बाहुल्य है, जहां पर अब एक भी बैनी नहीं दिखता । दक्षिण और तामिल देशों में ऐसे अनेक प्रदेश है जिनमें जैनधर्म शतियों तक एक प्रभावशाली राष्ट्रधर्म रह चुका है किन्तु वहां अब उसका कोई नाम तक नहीं जानता ।
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चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में प्रचलित कथा
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जो बातें मैं सरसरी तौर पर लिख चुका हूं उनमें खोजके लिए बेहद गुंजाइश है। मैं विशेषकर एक महत्वपूर्ण बातकी खोज के लिए अनुरोध करता हूं। वह यह है कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य 'श्रीभद्रबाहु के साथ अवणबेलगोला गये और फिर उन्होंने जैन सिद्धान्त अनुसार उपवास करके धीरे धीरे प्राण तज दिये, यह कहां तक ठीक है ' निस्संदेह कुछ पाठक यह जानते होंगे कि इस विषय पर मिस्टर लूइस राइस और डाक्टर फ्लीटमें खूब ही वादविवाद हो चुका है। अब समय आ गया है कि कोई जैन विद्वान् कदम बढ़ावे और इस पर अपनी दृष्टिसे वादविवाद करे। परन्तु इस काम के लिए एक वास्तविक विद्वानकी आवश्यकता है, जो ज्ञानपूर्वक विवाद करे ऊटपटांग बातोसे काम नहीं चलेगा ।
१ लेखक ने अपने भारतीय इतिहास के तीसरे संस्करणमें चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा हैं, उसे यहां
दे देना अनुपयुक्त न होगा। उन्होने लिखा है
'मैंने अपनी पुस्तक के द्वितीय संस्करण में इस कथाको रद्द कर दिया था। और बिल्कुल कल्पित ख्याल किया था। परन्तु इस कथा की सत्यता के विरुद्ध जो जो शंका है उन पर पूर्ण रूपसे पुनः विचार करने से अब मुझे विश्वास होता है कि यह कथा संभवतया सच्ची है। और चन्द्रगुप्त ने वास्तव में राजपाट छोड़ दिया होगा । और वह जेन साधु हो गया हो
गा । निःसन्देह इस प्रकार की कथाएं बहुत कुछ समालोचना के योग्य हैं और लिखित साक्षीसे ठीक ठीक पता लगता नहीं, तथापि मेरा वर्तमान में वह विश्वास है कि यह कथा सत्य पर निर्धारित है और इसमें सचावी है। राईस साहब ने इस कथा की सत्यताका अनेक रथी पर बड़े जोर से समर्थन किया है पृ. १४५) यद्यपि जेन विद्वानोंने इस दिशा में कुछ नहीं बिदा है. तथापि 'स्वान्तः सुखाय' ऐतिहासिक शोध रत विद्वानों की साधना ने भारतके आदि सम्राट चन्द्रप्तमीके जैन वर्णन की सत्यता प्रमाणित कर दी है। जिसको जैन साहित्यकी सहायता से सर्वाङ्ग सुन्दर बनाया जा सकता है
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