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महावीर स्वामीकी पूर्व परम्परा कि मोग्गलापन और सारिपुत्त ये दोनों बुद्धके अग्रगण्य शिष्य थे । इस प्रकार हमें ज्ञात होता है कि, ब्राह्मणधर्म, जैनधर्म और बौद्धधर्म ये तीनों प्राचीन भारतके व्यापक सैद्धांतिक वायुमंडलसे उत्पन्न हुए हैं । इस सम्बन्धमें यह कहना अनुचितन होगा कि अाधुनिक इतिहासकारोंने भारतकी प्राचीनताको बहुत विपरीत समझा है । अर्थात् अधिकांश लोगोंने यह समझ रक्खा है कि, प्राचीन भारतमें ब्राह्मणधर्मके सिवाय अन्य किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं था। परन्तु उस ब्राह्मण धर्मका रूप कैसा था, इस बातको उन्होंने कभी नहीं समझना चाहा । यदि भारतकी पुरातन सभी बातोंको वे 'ब्राह्मणधर्म' नाम देते हैं, तो उनकी कल्पना ठीक है । परन्तु 'ब्राह्मणधर्म' से यदि वे वैदिकधर्म अथवा वैदिक यज्ञादि ही लेते हैं, तो मैं नहीं समझ सकता कि, प्राचीन भारतमें ब्राह्मणधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं होना किस प्रकार प्रामाणिक युक्तियों द्वारा सिद्ध हो सकता है। भारतकी प्राचीनतम अवस्था जैनशस्त्रों में ठीक ठीक चित्रित की गयी है । जैनशास्त्रोंमें लिखा है कि जब ऋषभदेव अपना धर्मोपदेश करते थे, उस समय ३६३ पाखण्डों ( मतों ) के नेता भी अपना अपना धर्मोपदेश करते थे । शुक्र अर्थात् बृहस्पति उनमें से एक थे, जिन्होंने चार्वाक मत निकाला । निःसन्देह प्राचीन भारतकी ऐसी ही स्थिति जान पड़ती है। प्राचीन समयमें यहां एक ही मतका एक ही उपदेशक नहीं था, किन्तु भिन्न भिन्न धार्मिक मन्तव्योंके उपदेश करने वाले अनेक शिक्षक थे जिन्होंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार जीवन और जगतके स्वरूपको दर्शाया था। प्राचीन कालमें वैदिक, सांख्या, चार्वाक, जैन, बौद्ध और अन्यान्य अनेक धार्मिक सिद्धांतोंकी शाखाएं थीं, जिनमेंसे कई तो सदाके लिए नष्ट हो गयीं । इन धर्मोंके उस समय बहुतसे कट्टर पक्षपाती थे । परन्तु प्राचीन भारतमें पर-निर्भरता नहीं थी अर्थात् सबके मन्तव्य स्वतन्त्र थे।
प्रोफेसर मैंक्सम्यूलर ने अपनी ७६ वर्षकी अवस्थामें लिखा था कि- "ज्यों ज्यों में अनेक मतों का पठन करता गया त्यों त्यों विज्ञानभिक्षु, श्रादिके इस मन्तव्यकी सत्यताका प्रभाव मेरे हृदय पर अधिकाधिक पड़ता गया कि, षट्दर्शनके भिन्न भिन्न मन्तव्योंसे परे एवं पूर्व एक ऐसा सर्वसाधारण भण्डार है जिसे कि राष्ट्रीय ( भारतीय ) सिद्धान्त या व्यापक तथा सर्वप्रिय सिद्धान्त कह सकते हैं । यह सिद्धान्त विचार और भाषाका एक बहुत बड़ा मानसरोवर है, जो कि बहुत दूर उत्तरमें अर्थात् अत्यन्त पुरातन समयमें विकसित हुआ था। प्रत्येक विचारकको अपने अपने मनोरथके अनुसार इसमेंसे विचारोंको ग्रहण करने की स्वतंत्रता थी।" प्राचीन भारतमें उधार लेने की प्रणाली नहीं थी अर्थात् विविध ऋषियोंके जीवनके सम्बन्धमें विभिन्न स्वतंत्र विचार थे। और जो दर्शन अाज हमारे देखने में आते हैं, वे उन्हीं ऋषियोंके अभिप्रायोंके लिपि बद्ध रूप हैं । यद्यपि अनेकानेक सैद्धान्तिक पद्धतियों और उनके जन्मदाताओंका जीवनचरित्र सदाके लिए लुप्त हो गया है।
जैनशास्त्रोंके अनुसार जैनधर्मके प्रवर्तक न महावीर हैं और न पार्श्वनाथ, किन्तु इस कालचक्र में ऋषभदेव जैनधर्मके प्रथम महोपदेशक हुए हैं। शुक्र अर्थात् बृहस्पति, ऋषभदेवके समकालीन
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