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वर्णो-अभिनन्दन ग्रन्थ
साधू आत्मारामने स्वरचित 'अज्ञानतिमिर भास्कर' में पार्श्वनाथ स्वामीके समय से लगाकर कवल- गच्छुकी पट्टावली लिखी है, जोकि इस प्रकार है-
श्री पार्श्वनाथ,
श्री शुभदत्त गणधर
श्री हरिदत्त जी,
श्री श्रार्य समुद्र,
श्री स्वामी प्रभासूर्य,
श्री केशिस्वामी,
साधू आत्मारामजीका ऐसा भी कथन है कि पिहिताश्रव; स्वामी प्रभासूर्य के शिष्य अनेक साधुओंोंमें से एक थे । उत्तराध्ययनसूत्र तथा दूसरे जैनग्रन्थोंसे हमें यह मालूम होता है कि 'केशि' पार्श्व - नाथकी परम्पराका था और भ० महावीर के समय जीवित था । तब बुद्धिकीर्तिको भी महावीरका समकालीन मानना स्वाभाविक हो जाता है, क्योंकि केशिके समान उस ( बुद्धिकीर्ति ) के भी गुरू पिहिताश्रव मुनि थे । ऐसा मालूम होता है कि उसकी उत्पत्ति भ० महावीर से हुई थी ।
हमें श्री श्रमितिगति श्राचार्यकृत 'धर्मपरीक्षा' ग्रन्थसे भी जो कि संवत् १०७० में बना था ऐसा मालूम होता है कि पार्श्वनाथ के शिष्य मोग्गलायनने महावीर से वैरभाव करके बौद्धधर्म चलाया। उसने शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा समझा था । धर्मपरीक्षा अध्याय १८ में इस प्रकार लिखा है
“रुष्टः वीरनाथस्थ तपस्वी मोडिलायनः । शिष्यः श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् । ६८ । शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । प्राणिनः कुर्वते किं न कोप वैर पराजिताः । ५९ ।
यहां प्रथम श्लोक में जो "शिष्य" शब्द श्राया है, उसका अर्थ शिष्य प्रशिष्य करना चाहिये | 'महावग्ग' ग्रन्थके द्वारा हमें मालूम होता है कि, मोग्गलायन और सारिपुत्त ये दोनों ब्राह्मण संजय परिव्राजकके अनुयायी थे, जो संजयके मना करने पर भी बुद्धके पास गये थे और उसके शिष्य बन गये । इस प्रकार 'धर्मपरीक्षा' ग्रन्थके अनुसार जब कि मोग्गलायन पार्श्वनाथ के शिष्यका शिष्य था, तब उपयुक्त संजय भी जो की मोग्गलायनका उपदेशक था वह भी केशीके समान पार्श्वनाथकी परम्पराका हो गा । और तब मोग्गलायन महावीरका समकालीन होना चाहिये । श्रेणिक चरित्र र दूसरे जैन ग्रन्थोंमें ऐसी सूचनाएं भरी पड़ी हैं कि, महावीर के अरहंतपनेके पहिले ही बुद्धने अपने नवीन मतका उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया था ।
ऊपरके उदाहरणोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि मोग्गलायन ने बौद्धधर्म नहीं चलाया, तब धर्मपरीक्षा के श्लोकका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मोगलायनने बुद्धको अपने धर्म प्रचार में दूसरोंकी अपेक्षा अधिक सहायता दी । बौद्ध ग्रन्थोंसे भी इस बात की पुष्टि होती है । क्यों
१. जैन इतिहास माला पृ० २३
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