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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
मथुराकी खुदाइयां १८६६ में समाप्त हुई जिनका आरंभ सन् १८५३ में हुआ था । प्रायः इन ४४ वर्षों में जो पुरातत्त्व संबंधी वस्तुएं प्राप्त हुई उनसे इतिहास, भाषा, लिपि, अादि पर बहुत प्रकाश पड़ा है। इनका लिपि विस्तार तो मौर्य काल से लेकर गुप्त-काल तक रहा है। इन स्थलोंसे उपलब्ध अभिलेखों से ज्ञात होता है कि किस प्रकार प्राकृत धीरे धीरे संस्कृत के शिकंजे में जकडकर टूट गयी और संस्कृत ही अधिकतर इस कालके पश्चात् अभिलेखों की भाषा बन बैठी । इन अभिलेखों से कुषाण राजाओं की शासन अवधियां भी प्रायः स्थिर हो गयी हैं । परन्तु जो इन खुदाइयोंका सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा है। वह है भारतीय तक्षण-कलाके इतिहास पर । भारतीय कुषाण-कला मथुराके ही अाधार से उठी और फैली थी । गान्धार-ग्रीक शैलीका भारतीय-करण भी अधिकतर यहीं हुआ था। जैन मूर्तिकला
ऊपर लिखी खुदाइयों में जो जैन मूर्तियां और अन्य भग्नावशेष मिले हैं वे अधिकतर और मूलतः कंकालीटीले से ही उपलब्ध हुए हैं। प्रमाणतः प्राचीन मथुरामें जैन सम्प्रदायका विहार इसी कंकालीटीलेकी भूमिपर अवस्थित था। वहां के अभिलेखों से सिद्ध है कि यह जैन-श्रावास मुस्लिम विजयों के समय तक जीवित था जब मथुराके अन्य प्राचीन पीठ कभीके खण्डहर बन चुके थे।
इस टीले से डा० फुहररने जैन तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियां खोद निकाली थीं। ये मूर्तियां विविध काल और विभिन्न परिमाणकी हैं और अब लखनऊ संग्राहालयमें प्रदर्शित हैं । मथुराके संग्राहालयमें भी लगभग ८०-६० की संख्यामें इस प्रकारकी कुछ नग्न मूर्तियां सुरक्षित हैं । इधर हाल की खुदाइयोंमें भी कुछ जैन मूर्तियां मिली हैं परन्तु वे अधिकतर भग्न हैं ।
तीर्थंकर मूर्तिकी कल्पना यथार्थतः पूर्णतया भारतीय है । इनके ऊपर किसी प्रकारका ग्रीकप्रभाव नहीं है और जैन 'अायागपट्टों' पर खुदी प्राकृतियां तो निस्सन्देह, जैसा उनके अभिलेखोंसे सिद्ध है, प्राक्कुषाणकालीन हैं । तीर्थंकर-मूर्ति बुद्ध और बोधिसत्त्वकी मूर्तियों से अपनी नग्नताके कारण सरलतासे पहचानी जा सकती हैं । जैन मूर्तिकी यह सबसे स्पष्ट और सशक्त पहचान है यद्यपि यह बात दिगम्बर सम्द्रदायकी ही मूर्तियों के संबंध में यथार्थतः कही जा सकती है, श्वेतांबरोंकी मूर्तियां वस्त्राभूषण, मुकुटादि से सुशोभित रहती हैं । मथुरा और लखनऊ संग्रहालयों की सारी जैन मूर्तियां ( तीर्थंकर ) दिगम्बर संप्रदायकी ही हैं। बुद्ध-मूर्तियों की भांति इनके हाथ और पैरोंके तलवों पर तो महापुरुष-लक्षण उत्कीर्ण होते ही हैं, उनके वक्षके मध्यमें भी ये लक्षण होते हैं । बुद्ध मूर्तियोंके केशकी भांति इनके केश भी अधिकतर घुघराले और ऊपर दाहिनी श्रोरको घुमे होते हैं । परन्तु प्राचीनतर मूर्तियोंमें केश कन्धों पर खुले गिरे होते हैं । प्राचीन जैन तीर्थंकर मूर्तियोंके न तो 'उष्णीष' होता है न 'ऊर्णा' परन्तु मध्यकालीन प्रतिमाओंके मस्तक पर एक प्रकार का हल्का शिखर मिलता है ।
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